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________________ ३०२ ] [ पट्टावली-पराग राजा और उसके प्रधान जगदंब प्रतिहार को प्रार्थना करके अजमेर वास्तव्य खरतरगच्छ योग्य राजादेश लिखवा कर, वह अपने घर गया और अभयकुमार ने भाण्डशालिक को अपने पास बुलाकर उसके समक्ष राजाज्ञा का लेख तथा खरतरसघ योग्य और जिनपतिसूरि योग्य अपने दो विज्ञप्ति - पत्र प्रधान लेखवाहक को देकर अजमेर संघ के पास भेजा । में आना उनके विरोधी प्राचार्यों ने राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध करवाया था। जिनश्वरसूरि की परम्परा के अन्य साधु पाटन में उनकी कोटड़ी में आते जाते और रहते हुए अपना सामान्य व्यवहार चलाते रहते थे । “विधिधर्म" का प्रचार और " आयतन अनायतन" की सभी चर्चाएं ठण्ड़ी पड़ चुकी थी, इतना ही नहीं, जिनवल्लभ के समय से विधि धर्मानुयायियों द्वारा पाटन तथा प्रासपास में आठ दस विधिचैत्य बनाए गए थे, उनको भी उनके अनुयायियों से छिनवा कर "कुमारपाल के राज्यकाल में पाटन संघ को सुपुर्द कर दिया था, इन बातों से उत्तेजित होकर जिनदत्त दूर बैठे हुए भी अपने भक्तों को विधि - धर्म के लिए मरने-मारने के लिए उत्तेजित किया करते थे, परन्तु निर्नायक सैन्य की तरह विधि - धर्म के अनुयायियों पर उनका कोई असर नहीं होता था । आचार्य जिनदत्त अपने " उपदेश - रसायन रास" में लिखते हैं "जो गीयत्थ सु करइ न मच्छरु, सुवि जीवंतु न भिल्लई मच्छरु, । सुद्धइ धम्मि जु लग्गइ विरलउ, संघि सु बज्भु कहिज्जइ जवलउ ॥२१॥" ( अपभ्रंश काव्यत्रयी, पृ० ३६ ) ऊपर के पद्य में जिनदत्तसूरि ने शुद्ध-धर्म में लगने वाले विरल मनुष्य को संघ द्वारा बहिष्कृत कहे जाने की बात कही है । " विहि चेहरि विहि करेवइ, करहि उवाय बहुति तिलेवर | जइ विहिजिणहरि अविहि पयट्टइ, तो घिउ सतुय मज्भि पलुट्टई ||२३|| " "जइ किर नरवरइ किविइ समवास, ताहिवि प्रघहि विहि चेइय दस तह विन धम्मिय विहि विणु झगडहि, जइ ते सव्वि वि उट्ठहि लगुडिहि । २४ | " ( अपभ्रंश का ० ० पृ० ४१ ) उपर के २३ वें पद्य में विधि चैत्य में अविधि करने के लिए बहुतेरे उपाय किये जाने तथा विधि - जिनघर में प्रविधि प्रवर्तने की भक्त श्रावकों की फरियाद पर आचार्य उन्हें आश्वासन देते हुए कहते हैं, भाइयों - जो कुछ भी हो, होने दो ! Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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