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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [३०३ श्रीपूज्य निनपतिसूरि भो गुजरात के राजा का आदेश-पत्र और अभयकुमार की दो विज्ञप्तियां पढ़कर संघ की प्रार्थना से श्रीनजमेर के संघ के साथ तीर्थवन्दनार्थ चले । विधिजिन-घर में प्रविधि की प्रवृत्ति सत्तु में घी ढलने जैसी बात है। २४ वें पद्य में विधिर्मियों की इस फरियाद पर कि "राजा ने दसही विधि-चैत्य प्रविधि करने वालों के हवाले दे दिये हैं।" आचार्य कहते हैं -- यद्यपि राजा ने दुप्पम काल के वश हो दश विधि-चैत्य तुमसे ले लिए हैं, तथापि धार्मिकों को उनमें जाकर विधिचैत्य का ही व्यवहार करना चाहिए, भले ही वे सब लाठियों के साथ सामना करने को खड़े हो। "धम्मिउ धम्मुकज्जु साहंतउ, परू मारइ कीवइ जुज्झन्तउ । तुवि तसु धम्मु अस्थि नहु नासह, परम पइ निवसइ सो सासइ ॥२६॥ (अपभ्रंश का० १० पृ० ४२) ऊपर के पद्य में प्राचार्य ने धार्मिकों को उत्साहित करते हुए कहा है -- धर्मकार्य को साधन करते हुए धार्मिकों को कोई क्रोध के वश हो मार डाले तब भी उसका धर्म नहीं जाता और वह मर कर शाश्वत पद अर्थात् “मोक्ष स्थान में निवास करता है।" जिनदरासूरि के उपर्युक्त प्रकार के उपदेशों से ही उनके पाटन के विहार पर प्रतिबन्ध लगाया गया था और कुमारपाल के राजस्वकाल में तो केवल जिनदत्त तथा इनके अनुयायियों का ही नहीं, पौर्णमिक, प्रांचलिक, विधिधर्म प्रवर्तक आदि सभी नये गच्छ वालों का पाटन में पाना बन्द हो गया था। कुमारपाल के स्वर्गवास के बाद १२३६ में एक पौर्णमिक साधु पाटन में आया और पता लगने पर राजकर्मचारियों ने पूछा -- कि "तुम पौर्णमिक गच्छ के हो,” उसने कहा -- "मैं पौर्णमिक नहीं हूँ, मैं तो साधु-पौर्णमिक हूं." इस प्रकार पौर्णमिक से अपने को जुदा बताने पर ही उसे पाटन में ठहरन दिया, कुमारपाल के राज्य तक ही नहीं उसके बाद द्वितीय भीमदेव के राज्य तक उक्त पौर्णमिक खरतर आदि गच्छों का पाटन में आना जाना बन्द था। अजमेर से जिनपतिसूरि के भक्तों ने शत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रा के लिए संघ की तैयारी कर रक्खी थी और गुजरात के राजा पर अर्जी लिखने पर गुजरात में होकर संघ के जाने की आज्ञा भी मिल सकती थी, परन्तु सवाल यह था कि पाटन में संघ के जाने पर "खरतर आचार्य को" नगर में आने का मनाई हुक्म हो जाय तो मुश्किली खड़ी हो सकती है, इस भविष्य की चिन्ता को लक्ष्य में ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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