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________________ ३०४ । [ पट्टावली-पराग अजमेर के संघ की बात चारों ओर फैली और विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलोधी, दिल्ली, वागड़, मण्डोवर प्रादि नगरों के रहने वाले यात्रियों के समूह प्रा मिले । श्रीपूज्य भी अपने विद्या-तपो आदि गुणों से स्थान-स्थान में जैन प्रवचन की शोभा बढ़ाते हुए, संघ के साथ चन्द्रावती पहुंचे। वहां पर पूर्णिमा-पक्ष के प्राचार्य "प्रकलंकदेवसूरि' ने भी ज्ञानगोष्ठी करते हुए जिनपतिसूरि को पूछा कि "क्या साधु को तीर्थयात्रा के लिए घूमना शास्त्रोक्त है ?" श्रीपूज्य ने कहा – “कारणवश रखकर पाटन निवासी विधि-धर्म का अनुयायी एक भणशाली गृहस्थ किसी बड़े आदमी को कहकर खरतराचार्यों का पाटन में आना जाना शुरु करवाना चाहता था। एक दिन वह भांडशालिक गृहस्थ व्यवहारी साधु अभयकुमार सेठ के साथ बैठा हुआ था, सेठ को प्रसन्नचित्त देखकर उसने अभयकुमार को सम्बोधित किया - "अभयकुमार ! तव सोजन्येन, तव कोटिसंख्यद्रव्याधिपत्येन, तव राज्यमान्यतया किमस्माकं फलं! यत्त्वमस्मद्गुरुन् श्री उज्जयन्त-शत्रुञ्जयादितीर्थेषु यात्रा न कारयसि ?" भरणशाली के उपर्युक्त शब्द जो अपने सम्बन्धी अभयकुमार को उपालम्भ पूर्वक कहे गए है, इससे यही सूचित होता है कि अभयकुमार सेठ जैसे राजमान्य और धनाढ्य गृहस्थों के बिना पाटन में आने जाने का मार्ग खुलना कठिन था, अपने सांसारिक सम्बन्धी को इस प्रार्थना पर अभयकुमार ने तुरंत ध्यान दिया और संघ को गुजरात पाने की प्राइम के अतिरिक्त उनके साथ जो प्राचार्य आदि हों उनको भी किसी प्रकार की रोक टोक न होने की वाचिक मञ्जूरी ले ली और उसकी सूचना अजमेर के संघ और जिनपतिसूरिजी को अपने पत्रों द्वारा दे दी, यह कार्य अभयकुमार ने अच्छा ही किया, राजकीय आज्ञा, निषेध, परिस्थितियों के वश होते हैं तो परिस्थिति के बदलने पर, उनको बदलना ही चाहिए, परन्तु पाटन नगर अनेक गच्छों का केन्द्रस्थान था । खरतर, पौर्णमिक आदि सुधारक गच्छों से पुराने गच्छ नाराज तो थे ही फिर वे पुरानी राजाज्ञानों को क्यों शिथिल होने देते? खरतरगच्छ वालों के लिए तो १३ वीं शती के मध्यभाग में ही मार्ग खुल गया था, परन्तु पौर्णमिक, आंचलिक, गच्छ वाले तो जब तक पाटन में राजपूतों का राज्य रहा तब तक पाटन से दूर-दूर ही फिरते थे। जब पुराने पाटन का मुसलमानों के आक्रमण से भंग हुआ और मुसलमानों ने वहां अपना राज्य जमा कर नया पाटन बसाया तब से पौर्ण मिक आदि पाटन में प्रवेश कर पाए थे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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