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[पट्टावली-पराग
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उन्हें अपने लिए पूछा। शिवभूति ने कहा : संघाटी तेरे पास रहने दे। शिवभूति ने कोडिन्य-कोट्टवीर नामक दो शिष्य किये और वहां से आगे शिष्य-परम्परा चली, भाष्यकार कहते हैं :
"बोडियसिवभूईओ, बोडियलिंगस्स होई अप्पत्तो।
कोडिण्ण-कोट्टवीरा, परंपराफासमुष्पण्णा ॥१४॥" (मू. भा.) अर्थात्-'बोटिक-शिवभूति से बोटिक-लिंग की उत्पत्ति हुई और उनको परम्परा को स्पर्श करने वाले कोण्डकुन्द, वीर नामक शिष्य हुए।'
टीकाकारों ने "कोडिन्य" और "कोट्टवीर'' इस प्रकार पदों का विश्लेष किया है। हमारे विचारानुसार "कौडिन्यकोट्ट" यह कोण्डकुण्ड का अपभ्रंश है और "वीर" ये भी इनके परम्परा-शिष्य हैं ।
निह्नव वक्तव्यता का निगमन करते हुए भाष्यकार कहते हैं : वर्तमान अवसर्पिणी काल में महावीर के धर्मशासन में होने वाले सात निह्नवों का वर्णन किया है : महावीर को छोड़कर किसी तीर्थङ्कर के शासन में निलब नहीं हुए। उक्त निर्ग्रन्थ रूपधारी निह्नवों के दर्शन संसार का मूल और जन्म-जरा-मरण गर्भावास के दुःखों का कारण है। प्रवचन-निह्नवों के लिए कराये हुए आहार आदि के ग्रहण में निर्ग्रन्थों के लिए भजना है, अर्थात् वे उक्त आहार आदि ले सकते हैं और नहीं भी ले सकते।
दिगम्बर सम्प्रदायप्रवर्तक शिवभूति का नाम निह्नवों की नामावलि में नहीं मिलता। आवश्यक-भाष्यकार और उसके टीकाकार कहते हैं : "बोटिक सर्वविसंवादी होने के कारण अन्य निह्नवों के साथ इनका नाम नहीं लिखा।" कुछ भी हो, पर इस सम्प्रदाय के उत्पन्न होने के समय में इसको कहीं भी "निह्नवसंप्रदाय नहीं लिखा, न शिवभूति को प्राचार्य कृष्ण द्वारा अपने गण या संघ से बहिष्कृत करने का उल्लेख मिलता है", बल्कि "एवंपि पण्णविनो कम्मोदएण चीवरारिण छड्डत्ता गो" अर्थात् स्थविर प्राचार्यों ने उसको बहुत समझाया तो भी कर्मोदयवश होकर शिवभूति अपने वस्त्रों का त्याग कर चला गया। इससे भी ज्ञात होता है कि
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