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________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ६५ प्रकार की, चार प्रकार की, नव प्रकार की, दस प्रकार की, ग्यारह प्रकार की और बारह प्रकार की, जिनकल्पिक उपधि के ये प्राठ विकल्प होते हैं । कोई रजोहरण मुखवस्त्रिका रूप दो प्रकार की ही उपधि रखते हैं, तब कोई इन दो उपकरणों के उपरान्त एक चद्दर भी श्रोढने के लिए रख कर त्रिविध उपधिधारी होते हैं, कोई उपर्युक्त एक वस्त्र के स्थान में दो रखते हैं, तब चतुविध उपधि होती है और तीन वस्त्र रखने वालों की पंचविध उपधि होती है । ये चार उपधि के प्रकार करपात्री जिनकल्पी के होते हैं । जो पात्रधारी होते हैं, उनके नवविध, दशविध एकादशविध और द्वादशविध उपधि होती है, जैसे : पात्र, पात्रबन्धन, पात्रस्थापनक, पात्रप्रमार्जनिका, पटलक, रजस्त्राण और गोच्छक, ये सप्तविध पात्रनिर्योग और रजोहरण तथा मुखवस्त्रिका मिलकर पात्रभोजी की नवविध उपधि होती है । इसमें एक वस्त्र बढ़ाने से दशविध, दो वस्त्र बढ़ाने से एकादशविध प्रौर तीन वस्त्र रखने वालों की उपधि १२ प्रकार की होती है ।" , यहाँ शिवभूति ने पूछा : " इस समय उपधि अधिक क्यों रखी जाती है ? जिनकल्प क्यों नहीं किया जाता ?" गुरु ने कहा : जिनकल्प करना आज शक्य नहीं है, वह विच्छिन्न हो गया है । शिवभूति ने कहा : विच्छेद कैसे हो सकता है ? मैं करता हूँ । परलोकहितार्थी को जिनकल्प ही करना चाहिए | इतना उपधि का परिग्रह क्यों रखना चाहिये ? परिग्रह के सद्भाव में कषाय, मूर्छा, भय आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । शास्त्र में अपरिग्रहत्व ही हितकारी बताया है। जिनेश्वर भगवन्त भी अचेलक हो शरीर रहते थे । अतः अचेलक रहना ही अच्छा है। गुरु ने कहा : देख, के सद्भाव में भी किसी को मूर्छा आदि दोष होते हैं, तो क्या शरीर का भी त्याग कर देना ? सूत्र में अपरिग्रहत्व कहा है, उसका अर्थ इतना ही है कि धर्मोपकरणों में भी मूर्छा नहीं करनी चाहिये, जिन- भगवान् भी एकान्त अचेलक नहीं थे । दीक्षा के समय सभी तीर्थङ्कर एक वस्त्र के साथ निकलते हैं, इत्यादि स्थविरों ने उसको बहुत समझाया, फिर भी वह वस्त्रों का त्याग कर चला गया । उसकी "उत्तरा" नामक बहन साध्वी उद्यान में ठहरे हुए शिवभूति को वन्दनार्थ गई। उनकी यह स्थिति देखकर उत्तरा ने Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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