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[ पट्टावलो-पराग
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जाता था उस स्थान पर लोग चबूतरा आदि कुछ स्मारक बनाते थे, जो "चैत्य" कहलाता था। इस प्रकार "चिता" शब्द को निष्पत्ति बताने वाले विद्वान् व्याकरण-शास्त्र के अनजान मालूम होते हैं। "चिता" शब्द से "चैत्य" नहीं बनता पर "चैत" शब्द बनता है। आज से लगभग ५ हजार वर्ष पहले के वैदिक धर्म को मानने वाले सवर्ण भारतीय लोग भग्निपूजक थे, उन प्रत्येक के घरों में पवित्र अग्नि को रखने के तीन-तीन कुण्ड होते थे, उन कुण्डों में अग्नि की जो स्थापना होती थी उसको "अग्निचित्या" कहते थे। सैकड़ों वर्षों के बाद "अग्निचित्या" शब्द में से "अग्नि" शब्द तिरोहित होकर व्यवहार में केवल "चित्या" शब्द ही रह गया था। भाज से लगभग २४०० वर्ष पहले के प्रसिद्ध वैयाकरण श्री पारिणनिऋषि ने अपने व्याकरण में व्यवहार में प्रचलित "चित्या" शब्द को ज्यों का त्यों रखकर उसको स्पष्ट करने वाला उसको पर्याय शब्द "अग्निचित्या" को उसके साथ जोड़कर "चित्याग्निचित्त्ये" ३।१॥ ३२. यह सूत्र बना डाला, इसो अग्निचयनवाचक "चित्या" शब्द से "चैत्य ' शब्द की निष्पत्ति हुई, जिसका अर्थ होता है - "पवित्र अग्नि, पवित्र देवस्थान, पवित्र देवमूर्ति और पवित्र वृक्ष" इन सब अर्थों में "चैत्य" शब्द प्रचलित हो गया और बाज भी प्रचलित है।
जिनचैत्य का अर्थ - जिन का पवित्र स्थान प्रथया जिन की पवित्र प्रतिमा, यह अर्थ आज भी कोशों से ज्ञात होता है। जिस वृक्ष के नोचे बैटकर जिन ने धर्मोपदेश किया वह वृक्ष भी श्रीजिन चैत्य-वृक्ष कहलाने लगा
और कोशकारों ने उसी के प्राधार से "चैत्य जिनौ कस्तबिम्बं, चैत्यो जिनसभातरुः" इस प्रकार अपने कोशों में स्थान दिया।
कौटिल्य अर्थशास्त्र जो लगभग २३०० वर्ष पहले का राजकीय न्याय-शास्त्र है, उसमें भी अमुक वृक्षों को "चैत्यवृक्ष" माना है और उन पबित्र वृक्षों के काटने वालों तथा उसके आस-पास गन्दगी करने वालों के लिए दण्डविधान किया है ।" नगर के निकटवर्ती भूमि-भागों को देव. तामों के नामों पर छोड़कर उनमें अमुक देवों के मन्दिर बना दिये जाते थे सौर उन भूमि-भागों के नाम उन्हीं देवों के नाम से प्रसिद्ध होते थे। जैसे
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