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________________ चतुर्थ-परिच्छेब ] [ ४५७ राजगृह नगर के ईशानदिक्कोण में "गुणशिलक" नामदेव का स्थान होने से वह सारा भूमिभाग "गुणशिलक चैत्य" कहलाता था। इसी प्रकार चम्पानगरी के ईशान दिशा-भाग में "पूर्णभद्र' नामक देव का स्थान था जो "पूर्णभद्र चैत्य" के नाम से प्रसिद्ध हो गया था और उस सारे भूमिभाग को देवता-अधिष्ठित मानकर उस स्थान की लकड़ी तक लोग नहीं काटते थे। इसी प्रकार प्राचीनकाल के ग्रामों, नगरों के बाहर तत्कालीन भिन्नभिन्न देवों के नामों से भूमि-भाग छोड़ दिए जाते थे और वहां उन देवों के स्थान बनाए जाते थे, जो चैत्य कहलाते थे। अाजकल भी कई गांवों के बाहर इस प्रकार के भूमिभाग छोड़े हुए विद्यमान हैं। प्राजकल इन मुक्त भूमिभागों को लोग "उरण" अर्थात् "उपवन" इन नाम से पहिचानते हैं । उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से पाठकगण समझ सकेंगे कि "चैत्यशब्द" "साधुवाचक" अथवा "ज्ञानवाचक" न कभी था न माज ही है। क्योंकि चैत्य शब्द की उत्पत्ति पूजनीय अग्निचयन वाचक "चित्या" शब्द से हुई है, न कि "चिता" शब्द से अथवा "चिति संज्ञाने" इस धातु से । इस प्रकृतियों से "चैत" "चित्त" "चैतस्" शब्द बन सकते हैं, "चैत्य-शब्द" नहीं। श्री पुप्फभिक्खू की समझ में यह बात आ गई कि शब्दों का अर्थ बदलने से कोई मतलब हल नहीं हो सकता। पूजनीय पदार्थ-वाचक "चैत्य" शब्द को सूत्रों में से हटाने से ही अमूर्तिपूजकों का मार्ग निष्कण्टक हो सकेगा। श्री पुप्फभिक्खू पपने प्रकाशन के प्रथम अंश के प्रारम्भ में "सूचना" इस शीर्षक के नीचे लिखते हैं "यह प्रकाशन मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य साधुकुल-शिरोमणि १०८ श्रीफकीरचन्दजीमहाराज (स्वर्गीय) के धारणा व्यवहारानुसार है।" पुप्फभिक्खूजी को इस सूचना में "धारणा-व्यवहार" शब्द का प्रयोग किस अर्थ में हुआ है यह तो प्रयोक्ता हो जाने, क्योंकि "धारणा-व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त विषयक पांच प्रकार के व्यवहारों में से एक का वाचक है। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_05
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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