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________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५५ भिक्खूजी की चैन्य शब्द पर इतनी अब कृपा कैसे हुई यह समझ में नहीं आता, मन्दिर अथवा मूर्तिवाचक "चैत्य" शब्द को ही काट दिया होता तो बात और थी। पर मापने चुन-चुन कर "गुणशिलकचैत्य," "पूर्णभद्रचैत्य," और चौबीस तीर्थङ्करों के "चैत्यवृक्ष" आदि जो कोई भी चैत्यान्त शब्द सूत्रों में आया, उसको नेस्तनाबूद कर दिया । इनके पुरोगामी ऋषि जेठमलजी आदि "चैत्य" शब्द को "व्यन्तर का मन्दिर" मानकर इसको निभाते थे, उनके बाद के भी बीसवीं शती तक के स्थानकवासी लेखक "चैत्यशब्द" का कहीं 'ज्ञान, कहीं 'साधु,' कहीं 'व्यन्तर देव का मन्दिर' मानकर सूत्रों में इन शब्दों को निभा रहे थे, परन्तु "श्री पुप्फभिक्खूजी" को मालूम हुअा कि इन शब्दों के अर्थ बदलकर चैत्यादि शब्द रहने देना यह एक प्रकार को लीपापोती है । "चैत्यशब्द" जब तक सूत्रों में बना रहेगा तब तक मूर्तिपूजा के विरोध में लड़ना झगड़ना बेकार है, यह सोचकर ही आपने "चैत्य" 'पायतन" "जिनधर'' "चैत्य वृक्ष" आदि शब्दों को निकालकर अपना मार्ग निष्कण्टक बनाया है । ठीक है, इनकी समझ से तो यह एक पुरुषार्थ किया है, परन्तु इस करतूत से इनके सूत्रों में जो नवीनता प्रविष्ट हुई है, उसका परिणाम भविष्य में ज्ञात होगा। पुप्फभिक्खूजी ने पूजा-विषयक सूत्र-पाठों, मन्दिरों और मूर्तिविषयक शब्दों को निकालकर यह सिद्ध किया है, कि इनके पूर्ववर्ती शाह लौका, धर्मसिंह, ऋषि जेठमलजी और श्री अमोलक ऋषिजी आदि शब्दों का अर्थ बदलकर मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे, वह गलत था। "चैत्य शब्द" का वास्तविक अर्थ : आजकल के कतिपय प्रदीर्घदर्शी विद्वान् "चैत्यशब्द" की प्रकृति "चिता" शब्द को मानते हैं और कहते हैं मरे मनुष्य को जहां पर जलाया के प्रमाद से नहीं किन्तु निरुपायता से, क्योंकि "चेइए" इस शब्द के स्थान में रखने के लिए प्रापको दूसरा कोई रगणात्मक "चेइय" शब्द का पर्याय नहीं मिलने से चैत्य शब्द कायम रखना पड़ा और नीचे टिप्पण में "उज्जाणे" यह शब्द लिखना पड़ा।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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