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टीका टिप्पण करने की आवश्यकता प्रतीत हुई वहां उन पर टीका-टिप्पणी भी की है, यह बात पाठकगरण को पढ़ने पर स्वयं ज्ञात होगी । कई पट्टावलि लेखकों ने अपनी पट्टावलियों में अपने प्राचायों और उनके कर्त्तव्यों के निरूपण में वास्तविकता से शताधिक अतिशयोक्तियां कर मर्यादा का उल्लंघन किया है । ऐसे स्थलों पर आलोचना करना जरूरी समझ कर हमने वहीं सत्य बातें लिख दी हैं । हमारा अभिप्राय किसी गच्छ की पट्टावली का महत्त्व घटाने का नहीं पर वास्तविक स्थिति बताने का था । इसलिए ऐसे स्थलों को पढ़कर पाठक महोदय अपने दिल में दुःख अथवा रागद्वेष की भावना न लायें ।
पट्टावली पराग की विशेषता :
पट्टावलियां तो अनेक छपी हैं और छपेंगी, पर एक ही पुस्तक में छोटी-बड़ी ६४ पट्टावलियां आज तक नहीं छात्रों । सौत्र-पट्टावलियों के अतिरिक्त "पराग संग्रह " में १ बृहद्गच्छोय, २ तपागच्छीय, ३ खरतरगच्छीय, ४ पौर्णमिक-गच्छीय, ५ साधु पौर्णमिक-गच्छीय, ६ अंचल-गच्छीय, ७ श्रागमिक-गच्छीय, ८ लघु पौषध शालिक, εबृहत् पौषध शालिक, १० पल्लिवाल - गच्छीय, ११ ऊकेशगच्छीय, १२ लौकागच्छीय, १३ कटुक. मतीय, १४ पार्श्व चन्द्रगच्छीय, १५ बाईस सम्प्रदाय की और तेरा पंथ प्रादि की मिलकर ६४ पट्टावलियां 'पट्टावली- पराग' में संगृहीत हैं ।
अन्य पट्टावलियों के पढ़ने से प्रायः गच्छों की गुरु-परम्पराओं और उनके समय का ही पता लगता है पर पट्टावली- पराग" के पढ़ने से उक्त बातों की जानकारी के उपरान्त किन-किन गच्छों की उत्पत्ति में कौन-कौन साधु श्रावक श्राविका प्रादि निमित्त बने थे इस बात का भी ज्ञान हो जाता है । दृष्टान्त के तौर पर श्री राधनपुर में तपागच्छ में "विजय" और "सागर" नाम के गृहस्थों की दो पार्टियां किस गृहस्थ के प्रपंच से कब हुई ? श्री विजयसेन सूरिजी के पट्ट पर श्री राजविजय सूरिजी और विजयहीर सूरिजी दो प्राचार्य किन के प्रपंच से बैठे ? और ब्रह्मऋषि ने किसके प्रपंच से अपना "ब्रह्म-मत" निकाला इत्यादि अश्रुतपूर्व और रसपूर्ण बातों के खुलासे "पट्टावली- पराग" से पाठकों को प्रामाणिक रूप में मिल सकेंगे ।
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