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________________ २६० ] [ पट्टावली-पराग प्रकृति का होते हुए भी विद्वान् साधु था। प्राचार्य हरिसिंह के पास सिद्धान्त पढ़ा हुआ था। गृहस्थवर्ग तथा श्रमणसमुदाय भी सोमचन्द्र की योग्यता से परिचित था। देवभद्रसूरि ने सर्वसम्मति से चित्तौड़ आने के लिए पत्र लिखा। चित्तौड़ जाने के बाद पं० सोमचन्द्र को देवभद्रसूरि ने एकान्त में कहा - अमुक दिन में प्राचार्य-पद प्रदान करने के योग्य लग्न निश्चित किया है । सोमचन्द्र ने कहा - ठीक है, पर इस लग्न में मुझे पद पर प्रतिष्ठित करोगे, तो मेरा जीवित लम्बा नहीं होगा। छः दिन के बाद शनिवार को जो लग्न मायगा, उसमें पट्टप्रतिष्ठित होने पर चारों दिशाओं में श्री जिनवल्लभसूरिजी के वचन का प्रचार होगा और चतुर्विध श्रमणसंध की वृद्धि होगी। श्री देवभद्रसूरि ने कहा - वह लग्न भी दूर नहीं है, उसी दिन पद प्रदान करेंगे। बाद में सोमचन्द्र के बताए दिन ११६६ के वैशाख सुदि १ को चित्रकूट के जिनचैत्य में श्रीजिनवल्लभसरि के पट्ट पर पं० सोमचन्द्र को प्राचार्य-पद देकर "श्री जिनदत्तसूरि" यह नाम रक्खा। जिनदत्तसूरि की पदप्रदान के बाद की देशना सुनकर सब ने प्राचार्य देवभद्र की पसन्दगी की प्रशंसा की। देवभद्र ने कहा - जिनवल्लभसूरिजी ने मुझे कहा था कि मेरे पट्ट पर आप सोमचन्द्र गणि को बिठायें, इसलिए मैंने उनकी इच्छा के अनुकूल कार्य किया है। अन्त में देवभद्राचार्य ने नये आचार्य को कहा - कुछ दिन तक पाटन को छोड़ कर अन्य प्रदेश में विहार करना१, जिनदत्तसूरि ने कहा - ऐसा ही करेंगे। १. गुर्वावलीकार जिनदत्त को पाटन से अन्य स्थानों में विहार करने की सूचना देवभद्र के मुख से करवाता है, और जिनदत्तसूरि उसको स्वीकार करते हैं। इस पर भी जिनदत्त अट्ठम तप करके देव को बुलाते हैं और देव से अपने विहार का क्षेत्र पूछते हैं, देव उनको मरुस्थली का प्रदेश विहार के लिए सूचित करता है। जिनशेखर को समुदाय में लेने के बाद गच्छ के आचार्य जिनदत्तसूरि को कहते हैं- जिनशेखर को शामिल लेना तुम्हारे लिए सुखकर न होगा, यह कहने के बाद वे आचार्ग अपने अपने स्थान जाते हैं, गुर्वावलीकार ने इस विषय में यथार्थ बात को छिपाया है। जिनशेखर को शामिल लेने का परिणाम जिनदत्त को भयंकर मिला हैं, इस सम्बन्ध में उपाध्याय श्री समयसुन्दरजी नीचे का वृत्तान्त लिखते हैं - जो ध्यान में लेने योग्य है - "श्री जिनवल्लभसूरिनिष्काषितसाधुमध्यग्रहणेन १३ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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