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तृतीय- परिच्छेद ]
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जिनवल्लभ गरिए को
प्रतिष्ठाएं करवायेंगे ।
अच्छे लग्न में देवगृह
नागौर में श्रावकों ने नेमिनाथ का देवालय और नेमिनाथ का बिम्ब तयार करवाया था । उनकी इच्छा हुई कि हम गुरु के रूप में स्वीकार कर उनके हाथ से दोनों की सर्वसम्मति से उन्होंने जिनवल्लभ गरिए को बुलाया । तथा नेमिनाथ - बिम्ब को प्रतिष्ठित करवाया उसके प्रभाव से वे श्रावक लखपति बन गए । नेमिनाथ के बिम्ब के लिए उन्होंने रत्नमय आभूषण बनवाये । इसी प्रकार 'नरवर' के श्रावकों की इच्छा हुई और जिनवल्लभ गणिका गुरुत्व स्वीकार कर उनसे जिनालय तथा जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करवाई। दोनों स्थानों के मन्दिरों में रात्रि में वलिप्रदान, स्त्रीप्रवेश, लकुटादिदान का निषेध कर विधि-चैत्य के नियम लिखवाए ।
मरुकोट के श्रावकों की विज्ञप्ति से जिनवल्लभ गरि विक्रमपुर होते हुए मरुकोट पहुंचे। वहां के श्रावकों ने एक अच्छा स्थल ठहरने के लिए दिया और उनके मुख से धर्मोपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त की । गणिजी ने उपदेशमाला सुनाना प्रारम्भ किया । यद्यपि यह ग्रन्थ श्रावकों का सुना हुआ था तथापि जिनवल्लभ गरिए की उपदेशधारा इतनी मधुर थी कि श्रोताओं को सुनकर तृप्ति नहीं होती थी । उस समय आचार्य देवभन विहार करते हुए रहिल पत्तन आए । पत्तन प्राकर उन्होंने जिनवल्लभ गरि को चित्तौड़ जल्दी प्रा जाने के लिए लिखा । जिनवल्लभ नागौर से विहार करते हुए चित्तौड़ पहुँचे और सं० ११६७ के प्राषाढ़ सुदि ६ के दिन वीरविधिचैत्य में अभयदवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभ गरिए को प्रतिष्ठित किया । देवभद्रादिक अपने-अपने स्थान पहुँचे, परन्तु उसी वर्ष में कार्तिक बदि १२ को रात्रि के समय जिनवल्लभसूरि समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हो गये ।
जिनवल्लभ का मरण- समाचार सुनकर देवभद्रसूरि को बड़ा दुःख हुआ और जिनवल्लभ के पद पर किसी योग्य साधु को प्रतिष्ठित कर उसकी परम्परा चालू करने की चिता में लगे ।
साधुनों की योग्यता पर विचार करते-करते उ० धर्मदेव के शिष्य सोमचन्द्र मुनि पर आचार्य देवभद्र की दृष्टि पहुँची । वह चपल
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