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प्रथम-परिच्छेद ]
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होने से सर्वनाश नहीं समझना चाहिए, अन्यथा सर्वनाश में रामयादि के विशेषण का उपन्यास निरर्थक होता, इत्यादि अनेक युक्तियों से समझाने पर भी अपना हठाग्रह नहीं छोड़ा, तब उसे समुदाय में से निकाल दिया। वह समुच्छेदवाद का प्रचार करता हुआ, काम्पिल्यपुर गया। काम्पिल्यपुर में "खण्डरक्ष" नामक श्रावक रहते थे। वे शुल्कपाल भी थे। उन्होंने वहां पाए हुए सामुच्छेदिकों को पकड़वाया और मरवाना शुरु किया। भयभीत होकर वे बोले : हमने तो सुना था कि तुम श्रावक हो, फिर भी इस प्रकार साधुओं को मरवाते हो ? 'खण्डरक्षक' ने कहा : जो साधु थे वे उसी समय व्युच्छिन्न हो गए। तुम्हारा ही तो यह सिद्धान्त है, इसलिए तुम दूसरे कोई चोर हो। उन्होंने कहा : मत मरवानो, हम वे ही साधु हैं जो पहले थे। इस प्रकार उन्होंने सामुच्छेदिकता का त्याग कर सिद्धान्त मार्ग को स्वीकार किया।
(५) द्विक्रियावादी आर्य गंग
भगवान् महावीर को सिद्धि प्राप्त होने के बाद ३२८ वर्ष व्यतीत होने पर उल्लुकातीर नगर में "द्विक्रियावादियों का दर्शन" उत्पन्न हुमा।
इसका विशेष विवरण भाष्यकार निम्न प्रकार से देते हैं :
उल्लुका नाम की नदी थी। उसके प्रासपास का प्रदेश भी उल्लुका जनपद के नाम से पहिचाना जाता था। नदी के दोनों तटों पर दो नगर बसे हुए थे, एक का नाम 'खेट" दूसरे का नाम "उल्लुका तीर" नगर था। वहां पर महागिरि के शिष्य "धनगुप्त" नामक प्राचार्य रहे हुए थे, धनगुप्त के शिष्य प्राचार्य गंग थे। वह नदी के पूर्वी तट पर थे, तब उनके गुरु प्राचार्य धनगुप्त पश्चिम तट स्थित नगर में। शरत्काल में प्राचार्य "गंग" अपने गुरु को वन्दन करने के लिए चले । वे सिर में गंजे थे। उल्लुकानदी को उतरते हुए उनका गंजा सिर धूप से जलता था, तब नीचे पगों में शीतल पानी से शैत्य का अनुभव होता था। गंग सोचने लगे : सूत्रों में कहा है : एक समय में एक ही क्रिया का ज्ञान होता है, शीत
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