________________
[ पट्टावली-पराम
(४) सामुच्छेदिक - अश्वमित्र
भगवान् महावीर को सिद्धि प्राप्त हुए ३२० वर्ष के बाद मिथिलापुरी में "सामुच्छेदिक दर्शन" उत्पन्न हुमा।
उपर्युक्त दर्शन के सम्बन्ध में "प्रावश्यक भाष्यकार" ने निम्नलिखित विशेष विवरण दिया है :
मिथिला नगरी के लक्ष्मोधर चैत्य में महागिरि प्राचार्य के शिष्य कौडिन्य नामक ठहरे हुए थे। कौडिन्य का शिष्य अश्वमित्र था, वह प्रात्मप्रवाद पूर्व का नैपुणिक वस्तु पढ़ रहा था। वहां छिन्नछेद नय की वक्तव्यता का मालापक माया, जैसे :
"पडघन्नसमयनेरइया वोच्छिज्जिस्संति, एवं जाव वेमारिणयत्ति, एवं बिइयादिसमएसु वत्तव्यं, एस्थ तस्स वितिगिच्छा जाया।"
प्रर्थात् वर्तमान समय के नारकीय जीव समयान्तर में व्युच्छिन्न हो जावेगे एवं असुरादि यावत् वैमानिक समझना। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीयादि समयों में उत्पन्न होने वालों का व्युच्छेद कहना। यहां अश्वमित्र को शंका उत्पन्न हुई, जैसे : “सर्व वर्तमान समय में उत्पन्न होने वालों का व्युच्छेद हो जायगा, तब सुकृत-दुष्कृत कर्मों के अणुओं का वेदन कसे होगा, क्योंकि उत्पाद के मनन्तर तो सब का विनाश ही हो जायगा।'
इस प्रकार की प्ररूपणा करते हुए "प्रश्वमित्र' को प्राचार्य कौडिन्न ने कहा : यह सूत्र एक नयमताश्रित है। इसको सिद्धान्त समझ कर शेष नयों से निरपेक्ष होकर मिथ्यात्व का समर्थक न बन । हृदय से विचार कर, कालपर्याय के नारा में किसी का सर्वथा विनाश नहीं होता, वस्तु मनन्तधर्मात्मक होती है। वह अनेक स्वपर पर्यायों से युक्त होती है। सूत्र में ऐसा लिखा है कि इस बात पर भी निर्भर न बन, क्योंकि सूत्र में हो. उन्हीं द्रव्यों को शाश्वत भी कहा है। जो भी वस्तु द्रव्य रूप से शाश्वत है, वही पर्यव रूप से प्रशाश्वत भी है। उसमें भी समयादि का विशेषण
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org