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________________ प्रथम परिच्छेद ] प्राचार्य के शरीर का विसर्जन कर सोचने लगे : "इतने समय तक हमने असंयत को वन्दन किया। वे अव्यक्तभाव की प्ररूपणा करते हुए बोले : कौन जानता है कि यह साधु है या देव ? इसलिए किसी को वन्दन नहीं करना चाहिए, क्योंकि निश्चय विना असंयत को नमन करना अथवा अमुक असंयत को संयत कहना मृषावाद है। इस पर स्थविरों ने उनको समझाया : यदि संयत के विषय में देव होने की शंका होती है तो देव के विषय में साधु की शंका क्यों नहीं होती ? अथवा तो देव के विषय में प्रदेव की शंका क्यों नहीं होतो ? देव ने अपना रूप बता कर कहा कि मैं देव हूँ, तो साधु साधु के रूप में रहा हुआ कहे कि मैं साधु हूँ, तो इसमें शंका क्यों की जाती है ? क्या देव का वचन ही सच हैं ? और साधुरूपधारी का नहीं ? जो जानते हुए भी परस्पर वन्दना नहीं करते हो, इत्यादि अनेक प्रकार से स्थविरों ने योगवाही साधुओं को समझाया परन्तु उन्होंने अपना 'अव्यक्तवाद' नहीं छोड़ा । तब अपने गच्छ से उन्हें पृथक कर दिया। विचरते हुए वे राजगृह नगर गए। वहां मौर्यवंशीय बलभद्र नामक राजा श्रमणोपासक था। उसने जाना कि अव्यक्तवादी साधु यहां पाए हुए हैं, तब उसने अपने नौकरों को प्राज्ञा दी कि जामो गुणशिलक चैत्य से साधुनों को बुला लामो। राजसेवक साधुओं को राजा के पास ले आये । राजा ने अपने पुरुषों को प्राज्ञा दी : जल्दी इन्हें सैन्य से मरवा डालो । राजा की प्राज्ञा होते ही वहां हाथी आदि सैन्यदल पाया देख कर अव्यक्तवादी बोले : हम जानते हैं कि तुम श्रावक हो, फिर हम साधुनों को कैसे मरवाते हो ? राजा ने कहा : तुम चोर हो, चारिक हो अथवा अभिमर हो, कौन जानता है ? अव्यक्तवादी बोले : हम साधु हैं । राजा ने कहा : तुम कैसे साधु हो, जो अव्यक्तवाद को पकड़े हुए परस्पर वन्दन तक नहीं करते । तुम श्रमण हो या चारिक, यह कौन कह सकता है ? मैं भी श्रावक हूँ या नहीं, यह निश्चय से कौन कह सकता है ? यहां अव्यक्तवादी समझे । लज्जित हुए और अव्यक्तवाद को छोड़ कर निश्शंकित हुए। तब राजा ने कठोर मोर कोमल वचनों से उपालम्भ देते हुए कहा : तुमको समझाने के लिए यह सब प्रवृत्ति की है, माफ करना, यह कह कर उन्हें मुक्त किया। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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