________________
द्वितीय-परिच्छेद ।
[ २४७
३६ सरवरणाचार्य -
जो निवृति प्राचार्य के शिष्य थे, निवृतिकुल के थोड़े से साधुनों के साथ विहार करते थे । एक दिन रात्रि के समय शूलरोग से कालधर्म प्राप्त हुए । उनमें शिष्य अब पाच र्य की इच्छा करते हैं, परन्तु पाट के योग्य कौन है ? इसका निर्णय न होने से वे निराश रहते, अन्यथा वहां कोटिक गण के जयानन्दसूरि प्राये, उन्होंने उनको प्राश्वासन दिया और कहा-तुम्हारे में सूर योग्य है, साधुनों ने कहा - "आप इन्हें प्राचार्य-पद पर स्थापन करिये," उन्होंने सूर को प्राचार्य-पद देकर : 'सूराचायं" बनाया, सर्व स धुओं ने उनको माना । गच्छ की वृद्धि हुई, जयानन्दसूरि और सूगचार्य दोनों साथ-साथ में विचरते थे, परस्पर ६ड़ी प्रीति थी।
४० सूराचार्य -
एक समय इस देश में दुष्काल पड़ा, तब दोनों प्राचार्य मालव देश गए और वहां पर जुदे-जुदे समुद यों के साथ विचरने लगे। सूराचार्य ने महेन्द्रनगर में च तुर्मास्य किया। जयानन्दसूरि ने उज्जैनी में चातुर्मास्य किया। वहां पर जयानन्दसरि का स्वर्गवास हो गया । सूराचर्य जयानन्दसूरि के स्वर्गवास के समाचार सुनकर शोकानुल हुए, उनके शिष्य देल्लमहत्तर ने कहा – गृहस्थ की तरह शोक करना साधु के लिये उचित नहीं, सूराचार्य ने भी अपने पट्ट पर देल्लमहत्तर को स्थापन कर आप तपस्या करने लगे, तीन-तीन उपवास के पारणे में प्रायम्बिल करते हुए, सब पदार्थ अनित्य मानते हुए उज्जैनी में ही अनशन करके देवलोक पधारे।
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org