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श्री बृहत्पौषधशालिक- पहाक्ली
"सथिसिरिसिद्धिसयरणं, गमिऊरणं बद्धमाजिरगनाहं । गुरुपरिवाडीहेडं, तहेव सिरिइदभूइगुरु ॥१॥ गुरुपरिवाडि बुच्छ, तत्थेव जिरिंणदवीरदेवस्स ।
पट्टोदयपढमगुरू, सुहम्मनामेण गणसामी ॥२॥" 'कल्याण लक्ष्मी तथा सिद्धि के कुलगृह समान और गुरुपरम्परा के हेतु ऐसे वर्द्धमान जिननाथ को तथा श्री इन्द्रभूति गुरु को नमन करके गुरुपरम्परा को कहूंगा, जिनेन्द्र वीरदेव के पट्ट पर तथा शासनोदय में प्रथम गुरु सुधर्मा नामक गण के स्वामी हुए ।१२।'
"धोनो गरगवइ जंबू, पभयो तइप्रो गरणाहिवो जयइ । सिरि सिज्जभवसामी, मसभद्दी दिसउ भद्दारिण ॥॥ संभूइविजयसूरि, सुभद्दबाहू य - थूलभद्दो प्र ।
अन्ज महागिरिसूरी, अज्ज सुहत्थी दुवे पट्टे ॥४॥" 'गणधर सुधर्मा के बाद दूसरे गणाधिपति जम्बू और तीसरे गणाधिपति आर्य प्रभव जयवंत हुए, प्रार्य प्रभव के बाद श्री शय्यम्भव स्वामी और शय्यम्भव के पट्टधर श्री यशोभद्र कल्याणप्रद हों, यशोभद्र के पट्टधर श्री संभूतिविजयसूरि और भद्रबाहु प्राचार्य हुए और इन दोनों के पट्ट पर प्राचार्य स्थूलभद्र हुए, स्थूलभद्र के पट्ट पर आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती दो पट्टधर हुए ।३।४।'
"सुट्ठिय-सुप्पडिबुद्धा, कोडिन-काकंदिगा गणाभिषखा। सिरिईददिन-दिन्ना, सीहगिरी वयरसामी अ॥५॥
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