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श्री देवद्धिंगसि की मुस-परम्परा
कल्प-स्थविरावली वास्तव में स्थविर देवद्धि की गुरु-परम्परा है। कल्प-स्थविरावली में आर्यवज्र का नम्बर १३वां आता है और इनके तृतीय शिष्य आर्य रथ से परम्परा आगे चलती है : १३-प्रार्य वज्र, १४-प्रार्य रत्र, १५-प्रार्य पुष्यगिरि, १६-आर्य फल्गुमित्र, १७-प्रार्य धनगिरि, १८-आर्य शिवभूति, १६-आर्य भद्र, २०-आर्य नक्षत्र, ३१-आर्य रक्ष, २२-प्रार्य नाग, २३-प्रार्य जेष्ठिल, २४-प्रार्य विष्णु, २५-प्रार्य कालक, २६-प्रार्य संपलित, २७-मार्य वृद्ध, २८-प्रार्य संघपालित, २६-पार्य हस्ती, ३०-आर्यधर्म, ३१-पार्यसिंह, ३२-प्रार्यधर्म, ३३-प्रार्य शाण्डिल्य ।
इस प्रकार गद्य कल्पस्थविरावली में सुधर्मा से लेकर शाण्डिल्य तक ३३ पट्टधर प्रार्य सुहस्ती की परम्पर। में होते हैं । श्री देवद्धिगरिण ने इसमें अपना नाम नहीं लिखा- क्योंकि वे स्वयं स्थविरावली के संकलनकार हैं। वास्तव में देवद्धिगरिण इस पट्टावली के ३४३ पट्टधर हैं, इसमें कोई विवाद नहीं है । स्थविरावली के गद्यसूत्र में शाण्डिल्य के आगे किसी भी स्थविर का नाम नहीं मिलता। फल्गुमित्र से लेकर पार्यसिंह तक के सभी स्थविरों के नाम पद्यों में निबद्ध कर वन्दन किया है, परन्तु अन्तिम दो सूत्रों में निर्दिष्ट अार्यधर्म और शाण्डिल्य के नाम नहीं मिलते, तब पद्यों में शिवभूति के बाद दुर्जयन्त कृष्ण का नाम अधिक उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रायसिंह के आगे प्रार्यजम्बू और प्रार्यधर्म के आगे आर्यनन्दित को स्तुति की गई है। इसके उपरान्त देसिगणि, स्थिरगुप्त क्षमाश्रमण कुमारधर्म गणि और देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण की नामावली पद्यों में दी है। इससे प्रमाणित होता है कि स्थविरावली के उपर्युक्त गद्य-सूत्र देवद्धिगणि के पुस्तक-लेखन के पहले ही निर्मित हो चुके थे। कल्प के टीकाकार लिखते
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