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तृतीय-परिच्छेद ]
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लिंग, वचन और सन्धि तक का पूरा ज्ञान नहीं था, उसी ने जिनमहेन्द्रसूरि के गुणगान किये हैं।
इसके अतिरिक्त पट्टावली में ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक स्खलनाएं दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु उन सब की यहां चर्चा करके लेख को बढ़ाना उचित नहीं समझा गया।
(५) पट्टावली नम्बर २३३३ :
उपर्युक्त नम्बर की पट्टावली में भिन्न-भिन्न पट्टावली तथा गुर्वावली के पांच पत्र हैं और इनमें भिन्न-भिन्न लेखकों की लिखी हुई पांच पाटपरम्पराए हैं, परन्तु उन सब को यहां चर्चा करना उपयुक्त नहीं, इनमें से जो बातें उपयोगी जान पड़ेगी मात्र उन्हीं की चर्चा करना ठीक होगा, इन पानों में एक पाट परम्परा श्री जिनलाभसूरि पर्यन्त लिखी हुई है और जिन्लाभसूरि का नम्बर ६६ वां दिया है, परन्तु बाद में किसी ने श्री जिनचन्द्रसूरि और जिनहर्षसूरि के नाम बढ़.कर पट्टधरों के नम्बर ७१ कर दिये हैं।
एक दूसरे पट्टावली पत्र में युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि को ६२ वें नम्बर में लिया है और आगे जिनसिंह, जिनराज, जिनरत्न और जिवचन्द्रसूरि के नाम लिखकर पट्टधरों के नम्बर ६६ कर दिये हैं परन्तु बाद में जिनसुख, जिनभक्ति और जिनलाभ इन तीनों आचार्यों के नाम बढ़ाकर पट्टधरों के नम्बर ६६ कर दिये हैं।
एक पट्टावली का पत्र पद्यमय गुर्वावलो का है, प्राचार्यों की स्तुति उद्योतनसूरि से प्रारम्भ को है और जिनलाभसूरि तक परम्परागत प्राचार्यों की स्तुति करके इस कल्पवाचना का उपोद्घात लिखा है, यह पत्र जिनलाभसूरि के समय का लिखा हुआ है ।
चौथा पत्र सुधर्म-स्वामी से लेकर जिनलाभसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि तक के ७२ पट्टधरों के नम्बर लगाए हैं, परन्तु इस पट्टावली में
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