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________________ ३७६ ] [पट्टावली-पराग - सामने अन्यगच्छोय प्राचार्य-रूप उल्लुनों के नेत्र चौंधिया गए थे। ऊपर से उतर कर नगर के मन्दिर में दर्शनार्थ जाने के प्रसंग में तपागच्छ के उपाश्रय के सामने होकर गीत-वादित्रों के साथ जाने का उल्लेख किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि विशिष्ट प्रसगों के सिवाय तपागच्छ के उपाश्रय के प्रागे होकर वादित्रों के साथ निकलने का खरतरगच्छीय प्राचार्यों के लिए बन्द होगा अन्यथा यहां पर उक्त उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पट्टावली के उपर्युक्त पाठ में संघपति द्वारा अपने निवास-स्थान पर जिनमहेन्द्र सूरि को बुलःकर सुवर्ण मुद्राओं से नवांग पूजा करने और दस हजार की थैली भेंट करने की बात कही है। ठीक तो है, संघपति जब धनवान् है तो अपने गुरु को धनहीन कैसे रहने देगा। इन बातों से निश्चित होता है कि उन्नीसवों शताब्दी के "श्रीपूज्य" नाम से पहिचाने जाते जैन आवार्य और “यति के नाम से प्रसिद्ध जैन साधु" पूरे परिग्रहधारी बन चुके थे। संघपति ने अपने प्राचार्य तथा साधुनों को वस्त्र और दो दो रुपये भेंट किये, यह एक साधारण बात है, परन्तु आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि द्वारा प्रत्येक साधु को दो-दो रुपयों के साथ वस्त्र देना, हमारी राय में उचित नहीं था। कुछ भी हो, परन्तु खरतरगच्छ के अतिरिक्त अन्य सभी गच्छों के प्राचार्य तथा साधुओं को ऊपर जाने से रोकने वाले संघपतियों से तथा उनके गुरु श्री जिनमहेन्द्रसूरि से अन्य गच्छ के प्राचार्यों तथा साधुओं ने वस्त्र तथा मुद्रामों की दक्षिणा लो होगी, इस बात को कौन मान सकता है। जिनके मन में अपने सम्प्रदाय का और अपनी आत्मा का कुछ भी गौरव होगा, वे तो दक्षिणा तो क्या उनकी शक्ल तक देखने को तैयार नहीं हुए होंगे। बाकी पट्टावली में कुछ भी लिखें इसको कौन रोक सकता है। पट्टावली-लेखक कहता है - "तदवसरे श्रीमत्पूज्यर्बहुतरं द्रव्यं व्ययं कृतं ।" पट्टावलीकार की भाषा से इतना तो स्पष्ट होता है कि इसका अन्तिम भाग किसो अर्घदग्ध संस्कृतपाठी का लिखा हुमा है। अधिकांश पट्टावली शुद्ध संस्कृत में है, परन्तु जिनमहेन्द्रसूरि के वर्णन में जो कुछ लिखा गया है, उसमें व्याकरण को अशुद्धियों का तो ठिकाना ही नहीं, ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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