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________________ ३७८ ] [ पट्टावलो-पराग कितने हो नाम युगप्रधानों के हैं जिनको यहां परम्परा में लिखा है, इनमें से बहुतेरे युगप्रधानों के नाम न आर्य महागिरि की परम्परा से मिलते हैं, न आर्य सुहस्तीसूरि की परम्परा से; यह पत्र जिनचन्द्रसूरि के समय का लिखा हुना है, इसके अन्त में "खरतरगच्छ" की शाखाओं के तथा अन्य गच्छों की उत्पत्ति के समयनिर्देशपूर्वक उल्लेख किये गए हैं। यह पत्र विशेष उपयोगी होने से इसका विशेष संक्षेप सार देंगे। इस पत्र में प्रार्य सुहस्ती तक प्रचलित परम्परा दी है, आर्य सुहस्ती को १० नम्बर दिया है, इसके बाद ११ वां शान्तिभद्रसूरि, (१२) हरिभद्रसूरि, (१३) गुणाकरसूरि, (१४) कालकाचार्य, (१५) श्री शण्डिलसूरि, (१६) रेवन्तसूरि, (१७) श्री धर्मसूरि, (१८) श्रीगुप्तसूरि, (१६) श्री आर्यसमुद्रसूरि, (२०) श्री मंगुसूरि, (२१) श्री सुधर्मसूरि, (२२) श्री भद्रगुप्तसृरि, (२३) श्री वयरस्वामी, (२४) आर्य रक्षितसूरि, (२५) दुर्बलिकापक्ष (पुष्य) मित्र, (२६) श्री आर्यनन्दसूरि, (२७) नागहस्तीसूरि, (२८) श्री लघुरेवतीसूरि, (२९) श्री ब्रह्मद्वीपसूरि, (३०) श्री षाण्डिलसूरि, (३१) हिमवन्तसूरि, (३२) श्री नागार्जुन वाचक, (३३) श्री गोविन्द वाचक, (३४) श्री सम्भूतिदिन्न वाचक, (३५) श्री लोहित्यसरि, (३६) श्री दुष्यगणि वाचक, (३७) उमास्वाति वाचक, (३८) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, (३६) श्री हरिभद्रसूरि, (४०) श्री देवसरि ।। उपर्युक्त ४० नामों से प्रार्य सुहस्ती के बाद के ३० नाम अस्तव्यस्त और इधर-उधर से उठा कर लिख दिये हैं। इनमें न पट्टक्रम है, न समय ही व्यवस्थित है, कितनेक नाम तो कल्पित हैं, तब अधिकांश नाम युगप्रधान पट्टावलियों में से लिये हुए हैं। (४१) श्री नेमिचन्द्र, (४२) श्री उद्योतन, (४३) श्री वर्धमान और (४४) श्री जिनेश्वरसूरि के नाम खरतर पट्टावलियों से मिलते-जुलते हैं। इसके आगे के (४५) श्री जिनचन्द्र, (४६) श्री अभयदेव, (४७) श्री जिनवल्लभ, (४८) श्री जिनदत्त, (४६) श्री जिनचन्द्र, (५०) श्री जिनपति, (४१) श्री जिनेश्वर, (५२) श्री जिनप्रबोध, (५३) श्री जिनचन्द्र सूरि, (५४) श्री जिनकुशल, (५५) श्री जिनपद्म, (५६) श्री जिनलब्धि, (५७) श्री जिनचन्द्र, (५८) श्री जिनोदय, (५६) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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