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________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १५६ निकली हुई विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति शकन्दरपुर में स्थापित की, फिर उसी वर्ष में सा. मोटा की तरफ से अहमदपुर में प्रतिष्ठा की और दोसी लहुमा की तरफ से प्रतिष्ठा कराकर गुर्जर तीर्थों की यात्रा करते हुए, शत्रुञ्जय की यात्रार्थ गये । यात्रा के बाद वहां से लौटकर स्तम्भतीर्थ पाकर श्री विजयदेवस रि को सूरि पद दिया और दो वर्ष के बाद सं० १६५८ में पाटन में विजयदेवस रि को आपने गच्छानुज्ञा की। वहां से शंखेश्वर तीर्थ की यात्रा करते हुए आप राजनगर पधारे और चातुर्मास्य वहीं किया । आपके उपदेश से वहां के अनेक श्रावकों ने बड़े प्राडम्बर के साथ छ प्रतिष्ठा महोत्सव करवाये। राजनगर के निवासी संघवी सूर। ने प्रतगृह महमुदी की प्रभावना की और बाद में श्री आबु श्री राणकपुर आदि तीर्थों की यात्रा कर कुशलपूर्वक वापिस प्राचार्य के साथ संघ राजनगर आया। एक वर्ष में श्रावकों ने एक लाख महमुदी खर्ची । वहां से राधनपुर जाकर दो प्रतिष्ठाएं करवाई, स्तम्भतीर्थ में एक, अकबरपुर में एक और गन्धार बन्दर में दो प्रतिष्टायें करवा कर सौराष्ट्र के संघ के प्रत्याग्रह से सौराष्ट्र में पधारे । शत्रुक्षय की यात्रा कर उस प्रदेश में तीन चातुर्मास्य और साठ प्रतिष्ठाएँ करवा कर गिरनार की यात्रा को गये और जामनगर में वर्षा चातुर्मास्य किया। सौराष्ट्र से लौट कर श्री शंखेश्वर होते हुए राजनगर पहुँचे। वहां चातुर्मास्य किया और चार प्रतिष्ठाएँ करवाईं, एकन्दर श्री विजयसेनसूरिजी के हाथ से ५० प्रतिष्ठाएँ और हजारों जिनप्रतिमाओं का अजन विधान हुआ। श्री शत्रुक्षय, तारंगा, नारंगपुर, शंखेश्वर, पंचाशर, राणकपुर, पारासण, वीजापुर प्रादि स्थानों में अपने उपदेश द्वारा जीर्णोद्धार करवाये । श्री विजयसेनसूरिजी ने आठ साधुनों को वाचक-पद और १५० साधुओं को पंडित-पद दिये। कुल २ हजार साधु-समुदाय के ऊपर २० वर्ष तक नेतृत्व करके सं० १६७१ के ज्येष्ठ कृष्णा ११ को अकबरपुर में स्वर्गवासी? हुए। १. उ० मेघविजयजी ने पट्टावलो के अपने अनुसन्धान में विजयसेनसूरिजी का स्वर्ग वास खम्भात में ज्येष्ठ शुक्ला ११ को होना लिखा है। और "नमो दुर्वाररागादि०" इस योगशास्त्र के श्लोक के ७०० अर्थ बताने वाला विवरण और सूक्तावलि आदि ग्रन्थों की रचना की है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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