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________________ प्रथम-परिच्छेद । [ १२१ को ध्यान में लेकर इन्द्रनन्दी ने पुण्ड्रवर्धन नगर में दिगम्बर साधुनों द्वारा पुस्तक लिखने सम्बन्धी प्रचलित दन्तकया को "श्रुतावनार" कथा के नाम से प्रसिद्ध किया है । इतना होने पर भी इस कथा को हम बिलकुल निराधार नहीं मान सकते। इसमें प्रांशिक सत्यता अवश्य होनी चाहिए। मोनो परिव्राजक हुवेनत्सांग भारत भ्रमण करता हुअा, जब "पुण्ड्रवर्धन' में गया था, तो उसने वहां पर “नग्न साधु'' सबसे अधिक देखे थे। इससे अनुमान होता है कि उस समय अथवा तो उसके कुछ पहले वहां दिगम्बर जैन संघ का सम्मेलन हुआ होगा, कतिपय दिगम्बर जैन विद्वान् उक्त सम्मेलन को कुन्दकुन्दाचार्य के पहले हुअा बताते हैं । कुछ भी हो दिगम्बरीय पट्टावलियों में कुन्दकुन्द से लोहाचार्य पर्यन्त के सात आचार्यों का पट्टकाल निम्नलिखित क्रम से लिखा मिलता है : (१) कुन्दकुन्दाचार्य ५१५-५१६ (२) अहिबल्याचार्य ५२०-५६५ (३) माघनन्याचार्य ५६६-५६३ (४) धरसेनाचार्य ५६४-६१४ (५) पुष्पदन्ताचार्य (६) भूतबल्याचार्य ६३४-६६३ (७) लोहाचार्य ६६४-६८७ पट्टावलीकार उक्त वर्षों को वोरनिर्वाण सम्बन्धी समझते हैं। परन्तु वास्तव में ये वर्ष विक्रमीय होने चाहिएं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में विक्रम की १२वीं शती तक बहुधा शक पौर विक्रम संवत् लिखने का ही प्रचार था। प्राचीन ‘दिगम्बराचार्यों ने कहीं भी प्राची . घटनामों का उल्लेख "वीर संवत्" के साथ किया हो यह हमारे देखने में नहीं पाया, तो फिर यह कैसे मान लिया जाय कि उक्त प्राचार्यों का समय लिखने में उन्होंने "वीर संवत्" का उपयोग किया होमा ? जान पड़ता है कि सामान्य रूप में लिखे हुए विक्रम वर्षों को पिछले पट्टावलीलेखकों ने निर्वाणाब्द मान कर धोखा खाया है और इस भ्रमपूर्ण मान्यता को यथार्थ मान कर पिछले इतिहासविचारक भी वास्तविक इतिहास को बिगाड़ बैठे हैं। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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