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[ पट्टावली-पराग
निर्णय मैं विद्वान् पाठकों पर छोड़ता हूँ। क्योंकि एतरफ तो दिगम्बर ग्रन्थकार भूतबलि और पुष्यदन्त को प्राचार्य "धरसेन" के पास पढ़ने की बात कहते हैं और दूसरी तरफ पट्टावली और प्रशस्तिलेखक उनके गुरु पहलि द्वारा चार संघों का विभाजन करवाते हैं। इन बातों में काल का समन्वय किसी ने नहीं किया। क्या प्राचार्य "धरसेन" और "अहंद्वलि" समकालीन थे? यदि यह बात नहीं है तो "महदलि" के समय में जिनका विभाजन किया गया है उन "सेन", "नन्दो", "देव' और 'सिंह' नामक चार संघों का उत्पत्ति-समय क्या है ?, यह कोई बता सकता है ? यदि सचमुच ही अर्हदलि के समय में चार संघ विभक्त हुए हैं, तो अर्हद्वलि का समय विक्रमीय अष्टम शती के पहले का नहीं हो सकता और इस स्थिति में "भूतबलि" और "पुष्पदन्त" ने "धरसेन" से कर्म सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया, इस कथन का मूल्य दन्तकथा से अधिक नहीं हो सकता।
एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जिन धरसेन, अहंद्वलि, पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, प्रायं मंखू, नागहस्ती प्रादि प्राचार्यो का कर्म-सिद्धान्त "कषायप्रभृत" "षट्खण्डागम" आदि के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता है, इनका प्राचीन शिलालेखों में कहीं भी नाम-निर्देश तक नहीं मिलता, इसका कारण क्या हो सकता है ? क्योंकि इतने बड़े भारी लेखसंग्रहों में अहंबलि, भूतबलि और पुष्पदन्त का नाम निर्देश केवल एक शिलालेख में उपलब्ध होता है और जिस लेख में नाम मिलते हैं वह लेख भी शक सं० १३२० में लिखा हुआ है, अर्थात् विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आता है। इस परिस्थिति को देखते हुए पूर्वोक्त प्राचार्यों के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त लिखने की बातें प्रचलित हुई हैं उनका प्राधार मात्र भट्टारक इन्द्रनन्दी की "श्रुतावतार-कथा" है। इसके पहले के किसी भी श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ में उक्त बातों का उल्लेख नहीं मिलता और इन्द्रनन्दी ने "श्रुतावतार" के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, उसका मूल्य दन्तकथामों से अधिक नहीं आंकना चाहिए।
जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में "मथुरा" और "वलभी" में पागमों के लिखने सम्बन्धी प्रसंग बने थे, उसी प्रकार शायद उन्हीं प्रसंगों
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