________________
प्रथम-परिच्छेद ]
[ ११६
जिनसेन गुणभद्र अहंद्वलि
पुष्पदन्त भूतबलि
नेमिचन्द्र माघनन्दी
( उनके वंश में) सिद्धर वसति के शक सं० १३२० के लेख नं० १०५ में भट्टाकलंक जिनसेन और गुणभद्रसूरि पर्यन्त पट्टावलि देने के बाद लेखक संघ-विभाजन की हकीकत लिखते हैं :
"यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्या-ख्येनापि शिष्य द्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां, प्राप्तोऽकुराम्यामिव कल्पभूजः ॥२५॥ अहलिस्संघ चतुविधं स, श्रीकोण्डकुन्दान्वय मूलसंघं । फालस्वभावादिह जायमान-द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥२६॥ सिताम्बरादो विपरीतरूपेऽखिले विसंधे वितनोतु भेदं । सत्सेन-नन्वि-त्रिदिवेश-सिंह-संघेषु यस्तं मनुते कुदृक्सः ॥२५॥
अर्थात्-'लक्षण, व्यंजन, स्वर, प्रान्तरिक्ष, शारीरिक, छिन्नांग, भौम, शाकुन, अंगविद्या, मादि निमित्तों से त्रिकालवर्ती सुख, दुःख, जय, पराजय मादि समस्त बातों को जानने वाले प्राचार्य महलि शिष्यद्वय से नवांकुर कल्पवृक्ष तुल्य पृथ्वी पर शोभित थे। ऐसे प्राचार्य अर्ह नलि ने कालस्वभाव से होने वाले रागद्वेष को कम करने के लिए श्री कौण्डकुन्दान्वय मूल संघ को सेन, नन्दी, देव और सिंह इन चार विभागों में विभक्त किया, इन चारों में जो भेद मानता है वह कुदृष्टि है ।
उपर्युक्त लेख में महदलि द्वारा मूल संघ को चार विभागों में बांटने की बात कही गई है। यह बात कहां तक सत्य हो सकती है, इसका
___Jain Education International 2010_05
For Private &Personal Use Only
www.jainelibrary.org