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द्वितीय-परिच्छेद ]
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"सिरिवज्जसे एसूरी १४, चउदसमो चंवसूरि पंचदसो १५ । सामन्तभद्दसरी, सोलसमो १६ रण्णवासरइ १६ ॥६॥"
'प्राचार्य वज्रस्वामी के प्रथम पट्टधर श्री वज्रसेनसूरि, जो पट्टक्रम से चौदहवें होते थे । वज्रसेनसूरि के पट्टवर श्री चन्द्रसूरि पन्द्रहवें पट्टधर प्राचार्य हुए और चन्द्रसूरि के पट्टधारी सोलहवें प्राचार्य श्रीसमन्तभद्रसूरि हुए जो वसति के बाहर रहने के कारण वनवासी कहलाते थे ॥६॥
प्राचार्य वनस्वामी के मुख्य शिष्य श्री वज्रसेनमूरि दुर्भिक्ष के समय में वज्रस्वामी के वचन से सोपारक नगर की तरफ गए थे। सोपारक में वज्रसेन ने जिनदत्त श्रेष्ठी के पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृति, विद्याधर को उनके कुटुम्ब के साथ दीक्षा दो थी और उन चारों के नामों से चार कुलों को उत्पत्ति हुई थी। प्राचार्य वज्रसेन दीर्घजीवी थे। आर्य वज्रसेन का जन्म जिननिर्वाण से ४७७ में, दीक्षा ४८६ वर्ष में, सामान्य श्रमणपर्याय ११६ वर्ष, अर्थात् ६०२ तक, युगप्रधानपर्याय में वर्ष ३ रहकर ६०५ के उपरान्त स्वर्गवासी हुए।
प्राचार्य वज्रसेन के पट्टधर श्री चन्द्रसूरि हुए, इन्हीं चन्द्रसूरि से "चन्द्रकुल"१ की उत्पत्ति हुई, जो आज तक यह कुल इसी नाम से श्रमरणों के दीक्षादि प्रसंगों में व्यवहृत होता है। प्राचार्य चन्द्रसूरि के प्रायुष्य अथवा सत्ता समय के सम्बन्ध में पट्टावलियों में कुछ भी उल्लेख नहीं है, फिर भी वज्रसेन के शिष्य होने के कारण से इनका सत्ता-समय वज्रसेन के जीवन का ही उत्तरार्द्ध अर्थात् विक्रम की दूसरी शती का मध्यभाग मान लेना वास्तविक होगा।
पट्टावली सूत्र की प्रस्तुत गाथा में श्री चन्द्रसूरि के पट्टधर का नाम "सामन्त भद्र" लिखा है। वह छन्दोनुरोध से समझना चाहिये, वास्तव में
१ अञ्चलगच्छ की बृहत्पट्टावली में श्री चन्द्रसूरिजी का स्वर्गवास विक्रम संवत् १७० वर्ष के बाद होना लिखा है।
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