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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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अढार अठयोत्तर वरसे रे॥ जै० ॥ सुदि पौष नी तेरस विधमें रे ॥०॥ कुमति ने शिक्षा दोधी रे ॥ जै० ॥ तव रास नी रचना कीधी रे ॥०॥१७॥ राधनपुर ना रहेवासी रे ॥ जै०॥ तपगच्छ केरा चौमासी रे ॥ जै० ॥ खुशालविजयजी नु सोस रे ॥ जै० ॥ कहे उत्तमविमय जगीस रे ॥०॥११॥ जे नारी रस भर गास्ये रे ॥ ज० ॥ सोभाग्य अषंडित थास्ये रे ॥ जै० ॥ सांभल से रास रसीला रे ॥ जै० ॥ ते लेस्य अविचल लीला रे ॥०॥१२॥
___इति लुपक लोप तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास संपूर्ण । सं० १८७८ ना वर्षे माघ मासे कृष्णपक्षे ५ वार चन्द्र पं० वीरविजयजी नीं प्राज्ञा थी कत्तपुरा गच्छे राजनगर रहेवासी पं० उत्तमविजय । सं० १८८२ र वर्षे लिपिकृतमस्ति पाटन नगरे पं० मोतीविजय ॥"
'जो निन्दक होता है, उसके वास्तविक स्वभाव का वर्णन करना वह निन्दा नहीं है । अहमदाबाद में जब दोनों पार्टियां कोर्ट में जाकर लड़ी थीं
और मदालत ने जो फैसला दिया था, उस समय हम भी अदालत में उनके साथ हाजिर थे। ढुण्ढकों के विपक्ष में फैसला हुआ और जैनशासन का डंका बजा, तब ढुण्ढक सभा को छोड़ कर चले गये थे। यह हमने अपनी आंखों से देखी बात है। जब कोई भी घटना घटती है और उसको अधिक समय हो जाता है, तब वह विस्मृत हो जाती है। लम्बे काल के बाद उस घटना के विषय में कोई पूछता है तो वास्तविक स्थिति से ज्यादा कम भी कहने में प्रा जाता है भोर तब जानकार लोग उसको असत्यवादी कहते हैं, हालाकि कहने वाला विस्मृति के वश ऊंचा-नीचा कह देता है, परन्तु दुनियां को कौन जीत सकता है, वह तो उसको असत्यवादी मान लेती हैं। चौथे समवायांग सूत्र में असत्य बोलने का पाप बताया है, इसलिये जो बात ज्यों बनी है हम वही कहते हैं। वर्णन में असत्य की मात्रा आटे में नमक के हिसाब से रह सकती है, अधिक नहीं। जिन्होंने जैनशासन को छाया का भी स्पर्श किया है, वैसे मुनि तो सत्यभाषी हो कहलाते हैं। जो मृग की तरह मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते हैं, वे प्रापमति कहलाते हैं। हमने तो गुरु के चरणों का आश्रय लिया है। जिस प्रकार
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