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[ पट्टावलो-पराग
सच्चा सोना कसौटी पर कसा जाता है, हमारी बातों की सच्चाई के हजारों लोग साक्षी हैं ।
सं० १८७८ के पौष सुदि १३ के दिन जब दुर्बुद्धि मूर्तिलोपकों को शिक्षा दी, उस समय इस रास की रचना की है। राधनपुर रहने वाले तपागच्छ के चौमासी श्री खुशालविजयजी के शिष्य उत्तमविजयजी कहते हैं - नो नारी इस रास को रसपूर्वक गायेगी उसका सौभाग्य अखंडित होगा और जो इस रसपूर्ण रास को सुनेंगे वे शाश्वत सुख पायेंगे।
"इस प्रकार लुम्पक लोप तपमच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास पूर्ण हुमा। सं० १८७८ के माघ कृष्णपक्ष में ५ सोमवार को पंडित वीरविजयजी की प्राज्ञा से कत्तपुरागच्छीय राजनगर के निवासी पं० उत्तमविजयजी ने रास की रचना की और सं० १९८२ के वर्ष में पं० मोतीविजय ने पाटन नगर में यह प्रति लिखी ॥"
उपर्युक्त पं० उत्तमविजयजी के रास से और वाडीलाल मोतीलाल शाह के जजमेन्ट से प्रमाणित होता है कि "समकितसार" के निर्माण के बाद स्थानकवासियों का प्रचार विशेष हो रहा था, इसलिए इस प्रचार को रोकने के लिए महमदाबाद के जैनसघ ने स्थानकवासियों के सामने कड़ा प्रतिबन्ध लगाया था। परिणामस्वरूप अदालत द्वारा दोनों पार्टियों से सभा में शास्त्रार्थ करवा कर निर्णय किया था। निर्णयानुसार स्थानकवासी पराजित होने से उन्हें अहमदाबाद छोड़ कर जाना पड़ा था।
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