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प्रथम-परिच्छेद ]
इस प्रकार श्वेताम्बर जैन-शास्त्रोक्त वृत्तान्तों के प्रामाणिक सिद्ध होने से उनके शास्त्रों की प्राचीनता और प्रामाणिकता स्वयं सिद्ध हो जाती है ।
श्वेताम्बर जैन संघ के मान्य कल्पसूत्रों में पुस्तक लिखने के समय की स्मृति में लिखे हुए, वीर निर्वारण सं० ६८० और ६६३ के उल्लेखं मिलते हैं । और इस सूत्र की थेरावली में भगवान् देवद्धिगरिण तक को गुरु-परम्परा का भी वर्णन है। इन दो बातों के आधार पर दिगम्बर विद्व न कह बैठते हैं कि कल्पसूत्र देवद्धिगरिण की रचना है। पर वे यह जानकर पाश्चय करेंगे कि इसी सूत्र की थेरावली में वरिणत कतिपय गण, शाखा और कुलों के निर्देश राजा कनिष्क के समय में लिखे गए मथुरा के शिलालेखों में भी मिलते हैं । जिज्ञासु पाठक इसके लिए हमारी सम्पादित 'कल्प. स्थविरावली" पढ़ें।
ऊपर हमने मथुरा के जिन लेखों और चित्रपटों का उल्लेख किया हैं, वे सब मथुरा के कंकाली टीला के नीचे दबे हुए एक जैन-स्तूप में से सरकारी शोधखाता वालों को उपलब्ध हुए हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रन्थ "माचारांग" की नियुक्ति में तथा "निशीथ" "बृहत्कल्प" और "ब्यवहार' सूत्रों के भाष्यों और चूणियों में इस स्तूप का वर्णन मिलता है। इन ग्रन्थों के रचनाकाल में यह स्तूप जैनों का अत्यन्त प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता था। चूर्णिकारों के समय में यह "देवनिर्मित स्तूप" के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था, “व्यवहारचूर्णि" में इसकी उत्पत्ति-कथा भी लिखी मिलती है। इस स्तूप में से उक्त लेखों से भी सैकड़ों वर्षों के पुराने अन्य अनेक लेख तीर्थङ्करों की मूर्तियां, पूजापट्टक, प्राचीन पद्धति की अग्रावतार वस्त्र वाली जैन-श्रमण की मूर्ति प्रादि भनेक स्मारक मिले हैं जो सभी श्वेताम्बर जैन परम्पर, के हैं और लखनऊ तथा मथुरा के अजायबघरों में संरक्षित हैं। इन प्रतिप्राचीन स्मारकों में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाला कोई स्मारक अथवा उनके चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर, एकादशांगधर, अंगधर या उनके बाद के किसी प्राचीन प्राचार्य का नाम या उनके गण, गच्छ, या संघ का कहीं नामोल्लेख
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