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________________ १५२ ] [ पट्टावली-पराग ___ रत्नशेखरसूरि के "श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति" "श्राविधिसूत्रवृत्ति" "प्राचारप्रदीप" नामक तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । प्राचार्य रत्नशेखरसूरि के समय में १५०८ में जिनप्रतिमा का विरोधी "लुंकामत" प्रवृत्त हुआ और लुकामत में १५३३ में 'भाणा" नामक प्रथम "साधुवेशधारी" हुआ। "तेवण्णो पुरण लच्छोसायरसूरोसरो मुणेयव्यो ५३ । पउवष्णु सुमइसाहू, ५४ परगवण्णो हेमविमल गुरू ५५ ॥ १७ ॥ __'रत्नशेखरसरि के पट्ट पर ५३ वें लक्ष्मीसागरसरि, लक्ष्मीसागरसरि के पट्ट पर ५४ वें सुमतिसाधुसरि और सुमतिसाधु के पट्ट पर ५५ वें हेमविमलसरि हुए । १७॥ श्री लक्ष्मीसागरसूरि का १४६४ में जन्म, १४७७ में दीक्षा, १४६६ में पंन्यासपद, १५०१ में वाचकपद, १५०८ में सूरिपद और १५१७ में गच्छनायक पद हुआ था। श्री लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर श्री सुमतिसाधुसूरिजी ने "दशवकालिक" पर "लघुटीका" बनाई थी, जो छप कर प्रसिद्ध हो गई है। श्री सुमतिसाधु के पट्टवर श्री हेमविमलसूरि के समय में साधु-समुदाय में पर्याप्त शिथिलता फैल गई थी, फिर भी हेमविमलसूरि की निश्रा में रहने वाले साधु ब्रह्मचर्य तथा निष्परिग्रहपन में सर्वप्रसिद्ध थे। क्षमाश्रमण प्रादि विधि से श्रावक के घर से लाया हुआ आहार हेमविमलसूरि नहीं लेते थे और अपने समुदाय में कोई द्रव्यधारी यति ज्ञात होता तो उसे गच्छ से निकाल देते थे, आपकी इस निस्पृहवृत्ति को देखकर लंकागच्छ के ऋषि हाना. ऋषि श्रीपति, ऋ० गणपति प्रमुख अनेक प्रात्मार्थी वेशधारी लुंकामत का त्याग कर श्री हेमविमलसूरि की शरण में पाए थे और समयानुसार चारित्र पालकर प्रात्महित करते थे। . प्राचार्य हेमविमल के समय में 'माजकल शास्त्रोक्त साधु दृष्टिगोचर नहीं होते" इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले कटुक नामक त्रिस्तुतिक Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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