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[ पट्टवली-परण
वंदि ६ को मंगलकलश साधु की दीक्षा और ज्येष्ठ सुदि २ को बाड़मेर की तरफ विहार किया ।
सं० १३३५ के मार्ग वदि ४ को पद्मकीर्ति, सुधाकलश, तिलककीति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभ, हेमतिलक और नेमितिलक नामक साधुत्रों की दीक्षा हुई, पौषसुदि & को चित्तौड़ में धूमधाम के साथ प्रवेश किया, फाल्गुण वदि ५ को श्री समरसिंह महाराज के राज्य में चौरासी में मुनिसुव्रत, युगादिदेव, अजितनाथ और वासुपूज्य के बिम्बों की, श्री महावीर के समवसरण की, स्वर्णगिरि के शान्तिनाथ विधिचैत्यस्थित पित्तलमय समवसरण की और दूसरी अनेक प्रतिमाओं की, साम्बमूर्ति की, आठ दण्ड़ों की महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा हुई और उसी दिन चौरासी में युगादिदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, शाम्ब, प्रद्युम्न और अम्बिका के मन्दिरों पर ध्वजारोप हुए, वद्रद्राह नामक गांव में जिनदत्तसूरि की प्रतिमा प्रतिष्ठा, श्री पार्श्वनाथ चैत्य पर चित्रकूट में अभिषिक्त दण्ड फाल्गुन सुदि १४ को चढ़ाया, जाहेड़ा गांव में चैत्र सुदि १३ को सम्यक्त्वारोपादि नन्दी महोत्सव हुमा, वरड़िया में वैशाख वदि ६ को पुण्डरीक, गौतमस्वामी, प्रद्य ुम्न मुनि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि की मूर्तियों तथा सरस्वती की मूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव हुमा, वैशाख वदि ७ को मोहविजय, मुनिवल्लभ की दीक्षा श्रौर हेमप्रभगरिण का वाचनाचार्य पद हुम्रा ।
सं० ० १३३६ में ज्येष्ठ सुदि ६ को अपने पिता का अन्त्य समय जानकर चित्तौड़ से जल्दी विहार करते हुए पालनपुर श्राए और अपने पिता श्रीचन्द्र श्रावक को दीक्षा दी और चन्द्र ने १७ दिन तक संस्तारक दीक्षा पालकर समाधि - पूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया ।
सं० १३३७ के वैशाख वदि ६ को गुर्जर भूमि के गांव को अपने चरणों से पवित्र किया, श्रावकों ने बड़ी नगर प्रवेश कराया, ज्येष्ठ वदि ४ शुक्रवार को सारंगदेव में वासुपूज्य चैत्य में २४ जिनालयों के बिस्त्रों तथा ध्वजदण्डों की, जोइला गाँव के लिए पार्श्वनाथ की और अनेक जिनप्रतिमानों की शानदार प्रतिष्ठा
महाराज के राज्य
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वोजापुर नामक धूमधाम के साथ
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