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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२३ हुई, इस उत्सव में वासुपूज्य चैत्य में द्र० ३०००० उत्पन्न हुए, द्वादशी के दिन आनन्दमूर्ति, पुण्यमूर्ति की दीक्षा हुई ।। स० १३३६ के फाल्गुन सुदि ५ को सर्वविधिमार्ग संघ के साथ प्रस्थान करके जिनरस्नाचार्य, देवाचार्य, वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गणि प्रमुख अनेक मनुष्यों के साथ श्री जिनप्रबोधसूरिजी फाल्गुन चातुर्मास्य के दिन श्री अर्बुदगिरि ऊपर पहुँचे और युगादिदेव और नेमिनाथ की यात्रा की। आठ दिन तक वहां ठहर कर इन्द्रपदादि के उत्सवों द्वारा अपने साथ ने हजार द्रम्म सफल किये, बाद में श्रीपूज्य के प्रसाद से कुशलतापूर्वक सर्वसंघ वापस जालोर आया। उसी वर्ष में ज्येष्ठ वदि ४ को जगच्चन्द्रमुनि और कुमुदलक्ष्मी तथा भुवनलक्ष्मी साध्वियों को दीक्षा दी, पंचमी को चन्दनसुन्दरी गणिनी को महत्तरा-पद दिया और चन्दनश्री नाम रक्खा। वहां से सोम महाराज की अभ्यर्थना से शम्यानयन में चातुर्मास्य कर सं० १३४० में जिनप्रबोधसूरिजी ने फाल्गुन चातुर्मास्य के दिन जैसलमेर में प्रवेश किया। वहां पर अक्षयतृतीया के दिन २४ जिनालय तथा अष्टापदादि के बिम्बों-ध्वजों का प्रतिष्ठा-महोत्सव हुमा, जिसमें देवद्रव्य की आमदनी ६ हजार द्रम्म की हुई। ज्येष्ठ वदि ४ को मेरुकलश, धर्मकलश और लब्धिकलश मुनि को तथा पुण्यसुन्दरो, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी और हर्षसुन्दरी साध्वियों की दीक्षा हुई, श्री कर्णदेव महाराज के भाग्रह से चातुर्मास्य वहां किया । __चातुर्मास्य के बाद जिनप्रबोधसूरि ने विक्रमपुर को विहार किया। वहां सं० १३४१ के फाल्गुन वदि ११ के दिन महावीर चत्य में सम्यक्त्वारोप, मालारोप, दीक्षादान आदि निमित्तक उत्सत्र हुए, जिनमें विनयसुन्दर, सोमसुन्दर, लब्धिसुन्दर, मेघसुन्दर और चन्द्रमूति क्षुल्लकों की और धर्मप्रभा, देवप्रभा नामक दो क्षुल्लिकानों को दीक्षायें हुई। वहां पर शासनप्रभावक जिनप्रबोधसूरि को दाहज्वर उत्पन्न हुआ, अपना आयुष्य स्वल्प समझ कर निरन्तर प्रयाणों से श्रीपूज्य जालोर पधारे । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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