SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ ] [पट्टावली-पराग देशों में दुष्काल पड़े, पर सौराष्ट्र में उसका प्रसार नहीं हुआ । सं० १७२३ में घोघा बन्दर में अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई और इसके बाद अहमदाबाद नगर के संघ के प्राग्रह से आपने गुजरात की तरफ विहार किया। सिरिविजयरयणसूरि-पमुहेहि रणेगसाहुबग्गेहि । परिकलिया पुह विमले, सूरिवरा दिन्तु मे भई ॥४॥' श्री विजयरत्नसूरि प्रमुख अनेक साधु-वर्गो से परिवृत पृथ्वीतल पर विचरते श्री विजयदेवसूरि के पट्टधर श्री विजयप्रभसूरि कल्याणप्रद हों; जिनके गुजरात, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, मेवात, कच्छ, हालार, सौराष्ट्र, दक्षिणादि देशों में तपःतेज के प्रताप से धर्मकार्य निर्विघ्नता से हो रहे हैं। "श्रीविजयप्रभसूरे - रुपासकः श्री कृपादिविजयानाम् । विदुषां शिष्यो मेघः, संबन्धमिमं लिलेख मुदा ॥३॥" श्री विजयप्रभसूरि के चरणसेवी और पण्डित श्री कृपाविजयजी के शिष्य मेघविजय ने पट्टावली का यह सम्बन्ध सहर्ष लिखा । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy