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________________ द्वितीय परिच्छेद ] [ १६५ सं ० ० १७०८ में अहमदाबाद के निकटवर्ती नवीनपुर में आषाढ़ सुदि २ को स्वर्गवासी हुए । उन्नति की । समय आने पर अपना सं० १७१० में वैशाख सुदि १० को प्रतिष्ठित किया । विजयप्रभसूरि का बृत्तलेश निम्न प्रकार से है : प्राचार्य श्री विजयदेवसूरि अनेक देशों में विचरे और जिनप्रवचन की श्रायुष्य चार वर्ष का शेष जान कर श्री विजयप्रभसूरि को अपने पाट पर "सिरिविजयदेवपट्ट, पढ़मं जाओ गुरू विजयसीहो । सग्गगए तम्मि गुरु पट्टे विजयप्पहो सूरी ॥ १ ॥" श्री विजयदेवसूरि के पट्ट पर प्रथम श्री विजयसिंहसूरि उत्तराधिकारी हुए थे, परन्तु विजयदेवसूरि की विद्यमानता में ही उनका स्वर्गवास हो जाने से प्राचार्यश्री ने अपने पट्ट पर श्री विजयप्रभसूरि को प्रतिष्ठित किया । आचार्य श्री विजयप्रभसूरि का जन्म १६३७ में कच्छ देश के मनोहरपुर में हुआ था । सं० १६८६ में दीक्षा, १७०१ में पंन्यास - पद, सं० १७१० में प्राचार्य पद और संवत् १७१३ में भट्टारक- पद हुना था । विजयप्रभसूरि का श्रमरणावस्था का नाम "वीरविजय" था । गान्धार बन्दर में आचार्य-पद पर स्थापित करके श्री विजयदेवसूरिजी ने "विजयप्रभसूरि" नाम रक्खा। वहां से विचरते हुए विजयदेवसूरिजी नवीन श्राचार्य के साथ सूरत पहुँचे और वर्षा चातुर्मास्य सूरत में किया, सूरत के बाद अहमदावाद जाकर वर्षा चातुर्मास्य किया और चातुर्मास्य के बाद वहीं पर विजयप्रभसूरि को गणानुज्ञा की, बाद में एक चातुर्मास्य अहमदपुर में करके विजयदेवसूरिजी विजयप्रभसूरि के साथ शत्रुञ्जय की यात्रा के लिये सौराष्ट्र की तरफ पधारे और संघ के साथ यात्रा करके सौराष्ट्रीय संघ के श्राग्रह से ऊनापुर गए । क्रमशः सं० १७१३ में आषाढ़ शुक्ला ११ को श्री विजयदेवसूरिजी ने स्वर्ग प्राप्त किया । आचार्य श्री विजयप्रभसूरि ने सौराष्ट्र में १० वर्षा चातुर्मास्य किए, ० १७१५, १७१७ और सं० १७२० इन तीन वर्षो में गुजरात नादि सं० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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