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________________ १६४ ] [ पट्टावलो-पराग व्यवस्थापना के लिये श्री बादशाह को खुश किया और उससे जरूरी प्राज्ञाए प्राप्त की। बाद वहां अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें करवाई। राजा-प्रतिबोध आदि से दक्षिणापथ में उनका विहार सर्वत्र सुगम हो गया। इतना ही नहीं, उस देश में सात प्रतिष्ठए और सात ही वर्षा-चातुर्मास्य करके उस प्रदेश में जैनधर्म का खासा प्रचार किया। दक्षिणापथ में विजयदेवसूरिजी ने ८० विद्वानों को पण्डित पद दिए और एक को उपाध्याय पद, फिर आप संघ के प्राग्रह से गुजरात में पधारे। __इधर श्री विजयसिंहसूरिजी ने भी गुरु-प्राज्ञा से मारवाड़, मेवाड़, मेवात आदि प्रदेशों में विचर राणा श्री जगत्सिंहजी को उपदेश देकर देश में जीवदया का प्रचार करवाया। जैन तीर्थों में उपदेश द्वारा १७ भेदी पूजा का प्रचार करवाया, मारवाड़ में मेड़ता नगर में एक प्रतिष्ठा कराई, किशनगढ़ में राठोड़वंशी श्री रूपसिंह महाराज के महामात्य श्री रायचंद के आग्रह से चातुर्मास्य किया और चातुर्मास्य के बाद मन्त्री द्वारा अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। वहां पर पाल्हणपुर से आए हुए, श्री महेशदास के मन्त्री श्री सुगुणा ने सुवर्णमुद्रामों से पूजन कर गुरु को वन्दन किया, बाद में माल्यपुर, बुन्दी, चतलेर पार्श्व प्रमुख तीर्थों की यात्रा करते हुए प्राप जैतारण पधारे और वहां चातुर्मास्य करने के बाद आप स्वर्णगिरि को यात्रा कर अहमदाबाद पहुंचे और गुरु को वन्दन किया। गुरु के साथ मापने सं० १७०५ में ईडरगढ़ में प्रतिष्ठा करवाई और वहां पर देवसूरिजी की तरह विजयसिंहसूरिजी ने भी ६४ विद्वानों को पण्डित-पद पर स्थापित किया। वहां से क्रमशः पाटन, राजनगर प्रादि में चातुर्मास्य करते हुए१ खम्भात पहुंचे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। श्री विजयसिंहसूरि का सं० १६४४ में जन्म, १६५८ में व्रत, १६७२ में वाचक-पद और सं० १६८१ में सूरि-पद हुआ था। श्री विजयसिंहसूरिजी बड़े क्षमाशील और विवेकी थे। आप २८ वर्ष तक सूरि-पद पर रह कर १. सं०.१७०६ में लुकामत के पूज्य बजरंगजी के शिष्य लवजी से मुख पर मुंहपत्ति गांधने वाले ढुढ़कों की उत्पत्ति हुई। इसमें दो भेद हैं - षट्कोटिक और अष्टकोटिक । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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