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तपागच्छ पलावली सूत्रवृत्ति अनुसन्धित पूर्ति दूसरी
- उपाध्याय मेघविजयजी विरचिता
दाक्षिणात्य संघ का प्रत्याग्रह जानकर श्री विजयदेवसूरिजी गुजरात से विहार कर सूरतबन्दर पहुँचे, वहां सं० १६८७ में उत्पन्न हुए सागरमत के अनुयायी श्रावकों ने यह मत सत्य है, ऐसा गुरुमुख से कहलाने के लिये बहुत धन ब्यय करके श्री मीर मौज नामक शासक को अपने अनुकूल कर अपनी तरफ के गोतार्थो को बुलवा कर श्री विजयदेवसूरिजी से वाद शुरु करवाया । सूरिजी ने भी सागरमत को प्ररूपणा सूत्रविरुद्ध होने से यथार्थ नहीं है, ऐसा प्रामाणिक पुरुषों की सभा में राजा के समक्ष गीतार्थों द्वारा सागरपाक्षिक गीतार्थों को परास्त करवाया, सभाजनों ने विजयदेवसूरि के जीतने का निर्णय दिया। राजा ने आचार्य का सन्मान किया, वहां से सूरिजो दक्षिण में विचरे । बीजापुर में आपने कुल ४ चातुर्मास्य किये । वहां के बादशाह श्री इद्दलशाह ने गुरु से धर्म का स्वरूप सुना और प्रतिज्ञा की कि जब तक गुरु महाराज यहां ठहरेंगे, तब तक यहां गोवध नहीं होने पाएगा । समुद्र तटवर्ती "करहेड़ पाश्वनाथ "कलिकुण्ड पार्श्वनाथ' प्रादि तीर्थों को यात्रायें करते हुए, विजयदेवसूरि ने उन देशों के लोगों को धर्म में जोड़ा, प्राखिर औरंगाबाद में चातुर्मास्य करके श्रापने खानदेश की तरफ विहार किया और बुरहानपुर में २ चातुर्मास्य किये, वहां से संघ के साथ श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, श्री माणिक्य स्वामी की यात्रा करते हुए, तिलिंग देश में गोलकुण्डा के निकट भाग्यनगर में बादशाह श्री कुतुबशाह से मिले और उनकी सभा में तैलिंग ब्राह्राणों को वाद में जीत कर जैनधर्म की
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