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[ पट्टाबली-पराग
उपसंहार :
दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों से हमको सन्तोष नहीं हुआ। एक भी सम्पूर्ण पट्टावली मिल गई होती तो हम इस प्रकरण को सफल हुमा मानते, अस्तु ।
दिगम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध में लिखते हुए, हमको अनेक स्थानों पर खण्डनात्मक शैली का प्राश्रय लेना पड़ा है, इसका कारण दिगम्बर विद्वानों के श्वेताम्बर-परम्परा-विरुद्ध किये गये आक्षेपों के प्रत्याघात मात्र हैं। दिगम्बर समाज में प्राज सैकड़ों पण्डित हैं और वे साहित्य सेवा में लगे हुए हैं, परन्तु इस पण्डितसमाज में शायद ही दो-चार विद्वान् ऐसे होंगे, जो सत्य बात को सत्य और असत्य को प्रसत्य मानते हों। कुछ पण्डित तो ऐसे हैं, जो श्वेताम्बर जैन परम्परा के मन्तव्यों का खण्डन करके प्रात्मसन्तोष मानते हैं । पण्डित नाथूरामजी प्रेमी, जुगलकिशोरजी मुख्तार, डॉ. हीरालालजी जैन और ए० एन० उपाध्याय आदि कतिपय स्थितप्रज्ञ विद्वान् भी हैं जो सत्य वस्तु को स्वीकार कर लेते हैं, शेष पण्डितमण्डली के विद्वानों में ऐसी उदारता दृष्टिगोचर नहीं होती। इनमें से कतिपय तो ऐसे भी ज्ञात हुए हैं, जो अपनी प्रशक्ति को न जानते हुए, धुरन्धर श्वेताम्बर जैनाचार्यों पर प्राक्षेप करते भी विचार नहीं करते। कुछ समय पहले की बात है, एक पण्डितजी का 'ज्ञानार्णव" ग्रन्य पर लिखा हुमा वक्तव्य पढ़ा और बड़ा पाश्वर्य हुआ। आपने लिखा था कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने "योगशास्त्र" में "ज्ञानार्णव'' के कई श्लोक ज्यों के त्यों उद्धृत किये हैं", उस समय हमारे पास मुद्रित "ज्ञानार्णव" नहीं था। ग्रन्थसंग्रह में से हस्तलिखित "ज्ञानार्णव" को मंगवाकर पढ़ा तो हमारे माश्चर्य का पार नहीं रहा। पण्डितजी ने जो कुछ लिखा था वह असत्य ही नहीं बिल्कुल विपरीत था।
"ज्ञानार्णव" के कर्ता भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने "हेमचन्द्रसूरि के योगशास्त्र" के कई श्लोक अपने ग्रन्थ में ज्यों के त्यों ले लिए देखे गए।
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