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________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४६१ जो प्राचीनता का प्रतिपादन किया गया है, वह विश्वासपात्र नहीं है । इस स्थिति में श्वेताम्बर - सम्प्रदाय मान्य आगमों पर दक्षिणात्य प्राकृत भाषा का प्रभाव बताना कोई अर्थ नहीं रखता । " सुत्तागमे" के प्रथम प्रदेश की प्रस्तावना के १४ वें पृष्ठ की पादटीका में लेखक कहते हैं. - " इतना और स्मरण रहे कि इससे पहले पाटलीपुत्र का सम्मेलन और नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्वावधान में माथुरी - वाचना हो चुकी थी ।" लेखकों का नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में माथुरीवाचना बताना प्रमादपूर्ण है, माधुरो - वाचना नागार्जुन वाचक के तत्वावधान में नहीं' किन्तु आचार्य स्कन्दिल की प्रमुखता में मथुरा नगरी में हुई थी; इसलिये यह वाचना "माथुरी" तथा "स्कन्दिली ” नामों से भी पहचानी जाती हैं। एक श्रागम के नाम का निर्देश दूसरे में होने के सम्बन्ध मैं भिक्षुत्रितय समाधान करता है - कि यह आगमों की प्राचीन शैली है । भिक्षुत्रय का यह कथन यथार्थ नहीं, भगवान् महावोर के गणधरों ने जब द्वादशांगी की रचना की थी, उस समय यह पद्धति अस्तित्व में नहीं थी । पूर्वाचार्यों ने नाश के भय से जब आगमों को संक्षिप्त रूप से व्यवस्थित किया, तब उन्होंने सुगमता के खातिर यह शैली अपनाई है, और जिस विषय का एक अग अथवा उपांगसूत्र में विस्तार से वर्णन कर देते थे । उसको दूसरे में कट करके विस्तृत वर्णन वाले सूत्र का निर्देश कर देते थे । अंगसूत्रों में "पनवरणा" आदि उपांगों के नाम आते हैं उसका यही कारण है । जैन - साहित्य पर नई-नई आपत्तियाँ : उपर्युक्त प्रस्तावनागत शीर्षक के नीचे भिक्षुत्रितय एक नया प्राविकार प्रकाश में लाता हुआ कहता है - "जिस काल में जैनों और बौद्धों के साथ हिन्दुओं का महान संघर्ष था उस समय धर्म के नाम पर बड़े से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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