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[ पट्टावली-पराग
बड़े अत्याचार हुए। उस अन्धड़ में साहित्य को भी भारी धक्का लगा, फिर भी जैन समाज का शुभ उदय या मागमों का माहात्म्य समझो कि जिससे आगम बाल-बाल बचे और सुरक्षित रहे।"
भिक्षुत्रितय की उपर्युक्त कल्पना उसके फलद्रूप भेजे की है। इतिहास इसकी साक्षी नहीं देता कि बौद्ध और जैनों के साथ हिन्दुओं का कभी साहित्यिक संघर्ष हुआ हो। साहित्यिक संघर्ष की तो बात ही नहीं, किन्तु धार्मिक असहिष्णुता ने भी बौद्ध और जैनों के साथ हिन्दुनों को संघर्ष में नहीं उतारा । किसी प्रदेश विशेष में राज्यसत्ताधारी धर्मान्ध व्यक्ति-विशेष ने कहीं पर बौद्ध जैन अथवा दोनों पर किसी अंश तक ज्यादती की होगी तो उसका अपयश हिन्दू समाज पर थोपा नहीं जा सकता और उससे जैन-साहित्य को हानि होने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है । इस प्रकार की देश-स्थिति जैन-साहित्य को हानिकर मुसलमानों के भारत पर आक्रमण के समय में अवश्य हुई थी, परन्तु उससे केवल जैनो का ही नहीं, हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि सभी भारतीय सम्प्रदायों को हुई थी। आगे भिक्षुत्रितय अपनी मानसिक खरी भाव. नामों को प्रकट करता हुआ कहता है -
"इसके अनन्तर चैत्यवासियों का युग पाया । उन्होंने चैत्यवास का जोर-शोर से आन्दोलन किया और अपनी मान्यता को मजबूत करने के लिए नई-नई बातें घड़नी शुरु की, जैसे कि अंगूठे जितनी प्रतिमा बनवा देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। जो पशु मन्दिर की ईटें ढोते हैं वे देवलोक जाते हैं आदि-प्रादि । वे यहीं तक नहीं रुके, बल्कि उन्होंने भागमों में भी अनेक बनावटो पाठ घुसेड़ जिये । जिस प्रकार रामायण में क्षेपकों की भरमार है, उसी प्रकार भागमों में भी।"
भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों के युग की बात कहता है, तब हमको आश्चर्य के साथ हंसी आती है। युग किसे कहते हैं और "चैत्यवास" का अर्थ क्या है ? इन बातों को समझ लेने के बाद भिक्षुत्रितय ने इस विषय में कलम चलाई होती, तो वह हास्यास्पद नहीं बनता।
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