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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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"चैत्यवास" यह कोई नई संस्था नहीं है और चैत्यों में रहना भी वर्जित नहीं है। मौर्यकाल और नन्दकाल से ही पहाड़ों को चट्टानों पर "लेण" बनते थे जिसका संस्कृत अर्थ "लयन" होता था, ये स्थान बनाने वाले राजा, महाराजा और सेठ साहूकार होते थे और मेलों उत्सवों के समय में इनका उपयोग होता था, शेषकाल में उनमें साधु सन्यासी ठहरा करते थे, "लयन" बनाने वाला धनिक जिसधर्म की तरफ श्रद्धा रखने वाला होता, उस धर्म के प्रवर्तक देवों और उपदेशक श्रमणों की मूर्तियां भी उन्हीं पत्थरों में से खुदवा लेता था, जिससे कि उनमें ठहरने वाले श्रमण लोग उनको लक्ष्य करके ध्यान करते, प्राज भी इसी प्रकार के लयन उडीसा के खण्डगिरि आदि पर्वतों में और एजण्टा, गिरनार प्रादि के चट्टानों में खुदी हुई गुफामों के रूप में विद्यमान हैं । सैकड़ों लोग उनको देखने जाते है, खोदी हुई मूर्तियों से सुशोभित इस प्रकार के लयनों को भिझुत्रितय "चैत्य" कहे चाहे अपनी इच्छानुसार दूसरा नाम कहे, वास्तव में इस प्रकार के स्थान "चैत्यालय" ही कहलाते थे और उनमें निस्संग और त्यागी श्रमण रहा कहते थे, खास कर वर्षा के समय में श्रमण लोग उनका माश्रय लेते थे जिनको बड़े-बड़े राजा महाराजा पूज्य दृष्टि से देखते और उनकी पूजा करते थे। धीरे-धीरे समय निर्बल पाया, मनुष्यों के शक्तिसंहनन निबंल हो चले, परिणामस्वरूप विक्रम की दूसरी शती के निकट समय में श्रमणगण ग्रामों के परिसरों में बसने लगे, जब उनकी संख्या अधिक बढ़ी और परिसरों में इस प्रकार के ठहरने के स्थान दुर्लभ हो चले, तब धीरे-धीरे श्रमणों ने गांवों के अन्दर गृहस्थों के अव्यापृत मकानों में ठहरना शुरु किया, पर इस प्रकार के मकानों में भी जब उनका निर्वाह नहीं होने लगा तब गृहस्थों ने सामूहिक धार्मिक क्रिया करने के लिए स्वतंत्र मकान बनवाने का प्रारम्भ किया। उन मकानों में वे सामायिक प्रतिक्रमण, पोषध आदि धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए जाने लगे, पौषध क्रिया के कारण ये स्थान “पोषधशाला" के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह समय विक्रम की पाठवीं शती का था।
साधुनों के उपदेश के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय का कथन अतिरंजित है, उपदेश के रूप में गृहस्थों के आगे उनके कर्तव्य का उपदेश करना उपदेशकों
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