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________________ ३४० ] [ पट्टावली-पराग - पर के चतुर्विंशति जिनालय के मूलनायक श्री महावीरदेव प्रमुख अनेक शैलमयबिम्बों, पित्तलमय-बिम्बों, गुरु-मूर्तियों तथा अधिष्ठायक-मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। ६ क्षुल्लक किये जिनके नाम न्यायकीति, ललितकीर्ति, सोमकीति, अमरकीति, नमिकीति और देवकीति दिये थे। उसके बाद देवराजपुर के श्रावकों के अत्याग्रह से श्री जिनकुशलसूरिजी ने चैत्र वदि में सिन्ध की तरफ विहार करने का मुहूर्त किया। सिवाना, खेडनगर आदि स्थानों में होते हुए जसलमेरु पहुँचे। वहां १६ दिन ठहर कर उच्चा आदि स्थानों में होते हुए श्रीपूज्य देवराजपुर पहुंचे और श्री युगादिदेव को नमस्कार किया। देवराजपुर में एक मास की स्थिरता कर वहां से विहार कर उच्चा पहुँचे। एक मास तक वहां ठहर कर विधिसमुदाय को स्थिर कर चातुर्मास्य करने के लिए पाप फिर देवराजपुर पहुँचे । चातुर्मास्य के बाद सं० १३८४ में माघ शुक्ला ५ को प्रापने वहां पर प्रतिष्ठामहोत्सव करपाया। इस महोत्सव में राणुकोट, कियासपुर के चैत्यों के मूलनायक योग्य श्री युगादिदेव के २ बिम्ब तथा अन्य अनेक पाषाणमय तथा पित्तलमय बिम्बों की प्रतिष्ठा हुई, तथा नव क्षुल्लक बनाये और तीन क्षुलिकाएं, इनके नाम - भावमूर्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, हेममूर्ति, भद्रमूर्ति, मेघमूर्ति, पद्ममूर्ति और हर्ष मूर्ति इनको दीक्षा दी और कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा इन साध्वियों को भी। सं० १३८५ में फाल्गुन शुक्ल ४ के दिन श्री जिनकुशलसूरिजी ने उत्सव कराया। उसमें पं० कमलाकर गरिण को वाचनाचार्य-पद दिया, नूतन दीक्षितों की उपस्थापना की और मालारोपणादि कार्य हुए। सं० १३८६ के वर्ष में बहिरामपुरीय संघ की प्रार्थना से श्रीपूज्य बहरामपुर गए और ठाट से नगर प्रवेश कर पाश्वनाथ के दर्शन किये, कुछ दिन वहां ठहरे और वहां से विहार कर क्यासपुर गये और वहां से नारवाहन की तरफ विहार किया, छः दिन तक वहां ठहर कर वापस क्यासपुर की तरफ विचरे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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