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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३४१ - ____सं० १३८७ के वर्ष में उच्चकीय समुदाय के आग्रह से और १२ साधुओं के परिवार के साथ उच्चा गए और एक मास वहां ठहरे, बाद में परसुरोरकोट के श्रावकों के आग्रह से वहां पधारे, वहां से विहार करके बहिरामपुर पहुंचे, वहां से क्यासपुरादि होते हुए, वर्षा चातुर्मास्य करने देवराजपुर पहुंचे। चातुर्मास्य के बाद १३८८ के वर्ष में बिम्ब प्रतिष्ठा संस्थापनादि के लिए उत्सव करवाया। उच्चापुरीय, बहिरामपुर, क्यासपुर, सिलारवाणादि अनेक गांवों के रहने वाले सिन्धदेश के समुदायों की हाजरी में मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन तरुणकीर्ति गरिण को प्राचार्यपद दिया और तरुण प्रभाचार्य नाम रक्खा । पं० लधिनिधान गरिण को अभिषेक पद देकर लब्धिनिधानोपाध्याय बनाया और जयप्रिय मुनि, पुण्यप्रिय मुनि को क्षुल्लक बनाया और राजश्री तथा धर्मश्री को क्षुल्लिका बनाया, उसके बाद देराउर में चातुर्मास्य किया। श्रीपूज्य अपना अन्त समय देखकर चातुर्मास्य के बाद भी उसी क्षेत्र में ठहरे, माघ महीने में ज्वरश्वासादि के बढ़ जाने से अपना निर्वाण समय निकट समझकर तरुणप्रभाचार्य को पौर लब्धिनिधानोपाध्याय को अपने पट्ट के योग्य पद्ममूर्ति क्षुल्लक को बनाकर उसको पद प्रतिष्ठित करने की शिक्षा दे के सं० १३८६ के फाल्गुन कृष्ण ५ को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत देने के बाद रात्रि के लगभग दो पहर बीतने पर आपने देह छोड़ देवगति को प्रयाण किया । आपके अग्निसंस्कार स्थान पर देवराजपुर के विधि-समुदाय ने स्तूप निर्माण करवाया। सं० १३६० के ज्येष्ठ शु० ६ को मिथुन लग्न में देवराजपुर के युगादि जिन चैत्य में तरुणप्रभाचार्थ ने जयधर्मोपाध्याय, लब्धिनिधानोपाध्याय प्रमुख ३० साधु, अनेक साध्वी समुदाय की हाजरी में भावना के अनुसार पद्ममूर्ति क्षुल्लक को श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टपर स्थापित किया, पूज्य के प्रादेशानुसार ही "श्री जिनपभसूरि" यह नाम दिया । इस पद स्थापना महोत्सव पर- जयचन्द्र, शुभचन्द्र, हर्षचन्द्र, महाश्री, कनकधी, क्षुल्लिकानों को जिनपद्मसूरिजी ने दीक्षा दी। पं० अमृतचन्द्र गणि को वाचनाचार्य-पद हुप्रा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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