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________________ श्री पावचन्द्र गाछ की पहावली (१) श्री पाश्र्वचन्द्र गच्छ के अनुयायी अपने गच्छ का अनुसन्धान श्री वादिदेवसूरि के साथ करते हैं। इनका कहना है कि वादिदेवसूरिजी ने चौबीस साधुनों को प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया था। उनमें श्री "पद्मप्रभ" नामक प्राचार्य भी एक थे, जिनसे हमारी "नागपुरीयतपागच्छ” की परम्परा चली है । पार्श्वचन्द्र के अनुयायियों का उक्त कथन कहां तक ठीक है, इस पर हम टीकाटिप्पणी करना नहीं चाहते, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि इनके गच्छ के साथ लगा हुमा "तपागच्छ” यह विशेषण सूचित करता है कि यह अनुसन्धान बाद में किया गया है । क्योंकि "तपागच्छ” नाम के प्रर्वतक प्राचार्यश्री जगच्चन्द्रस रि थे, और इनको यह पद सं० १२८५ में प्राप्त हुआ था। इससे इतना तो निश्चित है कि पद्मप्रभस रि से "नागपुरीय तपागच्छ” शब्द का प्रचलन नहीं हुआ था। मालूम होता है, उपाध्याय पावचन्द्र का अपने गुरु के साथ वैमनस्य होने के बाद "पद्मप्रभसूरि" से अपना सम्बन्ध जोड़कर वे स्वयं उनकी परम्परा में प्रविष्ट हो गये है। __ वादिदेवस रि के बाद पार्श्वचन्द्रीय अपनी पट्टपरम्परा निम्नलिखित बताते हैं - ४५ श्री पनप्रभस रि ५१ श्री रत्नशेखरस रि ४६ ॥ प्रसन्नचन्द्रसरि ५२ , हेमचन्द्रसरि ४७ , गुणसमुन्द्रसूरि ५३ , पूर्णचन्द्रस रि ४८ , जयशेखरसूरि ५४ , हेमहंसस रि ४६ , वज्रसेनस रि ५५ , लक्ष्मीनिवासस रि ५० , हेमतिलकसरि ५६ , पुण्यरत्नस रि ५७ , साधुरत्नस रि (पाश्र्वचन्द्र के गुरु) ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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