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[पट्टावली-पराग
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स्थिति स्पष्ट हुई। विजयदेवपूरिजी के ऊपर लगाया गया सागरों के पक्ष का आरोप निराधार प्रमाणित हुप्रा तब विद्वान् साधु आनन्दसूरि की परम्परा में से निकल कर देवतरि की परम्परा में आने लगे थे।
प्रसिद्ध उपाध्याय यशोविजयजो प्रथम से ही मध्यस्थ थे, परन्तु विनयविजयजी अपने गुरुषों के कारण प्रानन्दसूरि की पार्टी में मिले थे, परन्तु बाद में वे भी विजयदेवसूरि की परम्परा में पाए थे, ऐसा इनके पिछले ग्रन्थों की प्रशस्तियों से ज्ञात होता है। विजयदेवसूरि ने अमुक सागरों को पद प्रदान करने के लिये अपना वासक्षेप सेठ शान्तिदास को अवश्य दिया था, परन्तु किसी भी सागर को आपने माचार्य-पद नहीं दिया। इससे भी ज्ञात होता है कि विजयदेवसूरिजी सागरों को बढ़ावा देने वाले नहीं थे, परन्तु दोनों पार्टियां हिलमिल कर रहें ऐसी भावना वाले थे । आज उपर्युक्त दोनों पार्टियों की प्राचार्य-परम्पराएं कभी की समाप्त हो चुकी हैं।
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