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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३३१ गणि, अमृतचन्द्र गणि आदि ८ साधु और जयद्धिमहत्तरा प्रमुख साध्वियों के परिवार से युक्त संघ नागोर से रवाना हुमा, क्रमशः श्री नरभट में पार्श्वनाथ की तीर्थयात्रा कर संघ कन्यानयन गया, वहां श्री वर्द्धमान स्वामी को नमन किया और आठ दिन तक उत्सव किया, वहां के यमुना पार तथा वागड़ के श्रावकों के समुदाय सहित ४०० घोड़े, ५०० शकट, ७०० बैल प्रादि विस्तार के साथ संघ नावों से यमुना महानदी को पार कर क्रमशः हस्तिनापुर पहुंचा। पूज्य ने संघ के साथ शान्तिनाथ, परनाथ, कुन्थुनाथ देवों की यात्रा की। संघ ने इन्द्र पदादि के चढ़ावे बोलकर अपना द्रव्य सफल किया। ठक्कर देवसिंह श्रावक ने बीस हजार जैथल बोलकर इन्द्रपद ग्रहण किया, अन्य चढ़ावे मिलकर देवभण्डार में १ लाख ५० हजार जैथल की उपज हुई। वहां पांच दिन ठहर कर संघ मथुरा तीर्थ के लिए रवाना हुआ, दिल्ली के निकट पाने पर वर्षा चातुर्मास्य लग गया, इसलिए श्रीपूज्य सघ को विसर्जन कर 8. अचलादि सुश्रावकों के साथ खण्डसराय में चातुर्मास्य ठहरे । यहां पर सुरत्राण के कहने से और संघ के प्राग्रह से "रायाभियोगेणं, गणाभित्रोणं" इत्यादि सिद्धान्त वचन का अनुसरण करते हुए प्राप चौमासे में भी वागड़ देश के श्रावक-समुदाय के साथ मथुरा गए १ और सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ तथा १. आचार्य जिनचन्द्रसूरि के द्वारा दूसरी बार जिनासा भंग करने का यह प्रसंग है। पहले आपने शत्रुञ्जय गिरनार के संघ के साथ वापस भीमपल्ली आते हुए, वायड महास्थान में प्राषाढी १४ की और बाद में वहां से श्रावण वदि में भीमपल्ली आकर चातुर्मास्य पूरा किया था। इस प्रसंग पर तो लगभग तीर्थो में जाने-आने में ही खासा चातुर्मास्य व्यतीत किया । पट्टावली-लेखक कहता है - सुरत्राण के उपरोध से और संघ के अत्याग्रह से आप मथुरा के लिए निकले थे, जो सरासर झूठा बचाव है । सुरत्राण को तो कोई मतलब ही नहीं था और संघ का भी इन्होंने विसर्जन कर दिया था, कतिपय वागड़ के श्रावकों के साथ आप खण्डसराय में चातुर्मास्य व्यतीत करने के लिए ठहरे थे, फिर मथुरा जाने का तात्कालिक क्या कारण उपस्थित हुआ कि जिससे बाध्य होकर आपको मथुरा जाना-माना पड़ा। हमारी राय में दोनों स्थानों पर जिनचन्द्रसूरि ने गफलत की है। प्रथम तो ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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