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________________ ३३२ ] [ पट्टावली-पराग महावीर तीर्थङ्करों की यात्रा की, फिर दिल्ली पाकर खण्डसराय में शेष चातुर्मास्य पूरा किया । दमियान श्री जिन चन्द्रसूरि के स्तूप की दो बार यात्रा की। चातुर्मास्य के बाद श्रीपूज्य के शरीर में कम्परोग की पीड़ा उत्पन्न हुई जिससे अपना आयुष्य अल्प समझ कर अपने शिष्य वा० कुशलकीर्ति गरिण को अपने पट्ट पर स्थापन करने का निश्चय करके सब हकीकत एक चिट्ठी में लिख कर राजेन्द्रचन्द्राचार्य को देने के लिए अपने विश्वासपात्र ४० विजयसिंह के हाथ में चिट्ठी का गोलक दिया, बाद में चौहान श्री मालदेव के प्रत्याग्रह से दिल्ली से विहार कर मेड़ता की तरफ प्रयाण किया। कन्यानयन प्राते-पाते आपको ताप श्वास आदि की विशेष बाधा बढ़ गई। परिणामस्वरूप अपने सर्व संघ से मिथ्या दुष्कृत किया और कहा - "यह लेख राजेन्दचन्द्राचार्य को देना"। कोई मास भर कन्यानयन में ठहर कर बाद में नरभटादि स्थानों में होते हुए मेड़ता पहुंचे, वहां पर राणक श्रीमालदेव के प्राग्रह से २४ दिन ठहर कर अपने स्वर्गवास के योग्य स्थान समझ कर वहां से कोसवाणा गए और वहां सं० १३७६ के इस प्रकार साधुओं को तीर्थयात्रा के निमित्त भ्रमण करना निष्कारण भ्रमण बताया है और निष्कारण भ्रमण करने पर शास्त्रकार ने प्रायश्वित्त विधान किया है, तब चातुर्मास्य में दिल्ली से मथुरा जाकर चौमासे में ही वापस दिल्ली आना कितना बुरा दृष्टान्त है, इसका जिनसूरिजी ने कतई विचार नहीं किया। साधुओं के लिए संयम यात्रा ही मुख्य यात्रा है। तीर्थयात्रा दर्शनशुद्धि का कारण होने से श्रावकों के लिए खास उपयोगी है, साधुओं के लिए नहीं। चारित्र में विराधना लगाकर तीर्थयात्रा के लिए अपने भक्तों का समुदाय इकट्ठा करके इधर-उधर घूमते रहना यह खरतरगच्छ के आचार्यों का प्रचार मात्र है। जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि आदि को तीर्थयात्रा निकाल कर तीर्थों में ले जाने वाला कोई नहीं मिला था क्या ? खरी बात तो यह है कि वे साधु का कर्त्तव्य अकर्त्तव्य समझते थे। चन्द्रावती में जिनपतिसूरि के साथ वार्तालाप करते हुए पोर्णमिक-गच्छीय प्राचार्य श्री अकलंकदेवसूरि नै संध के साथ साधु को जाने के लिए जो आपत्तियां उठायी हैं और जिनपतिसूरिजी ने उनका जो समाधान किया है उसके पढ़ने से पाठकगण अच्छी तरह समझ सकते हैं कि जिनचन्द्रसूरि की उक्त गफलत ही नहीं किन्तु निष्कारण अपवाद का सेवन है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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