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________________ तुतीय-परिच्छेद ] [ ३३३ प्राषाढ़ शुक्ल ६ को रात्रि में डेढ़ पहर रात्रि व्यतीत होने पर चतुर्विध संघ को मिथ्यादुष्कृत कर समाधिपूर्वक देह छोड़कर स्वर्गवासी हुए । श्रावक-समुदाय ने नारियल आदि फल उछालते हुए ले जाकर आपका अन्तिम देहसंस्कार किया । चातुर्मास्य के अनन्तर जयवल्लभ गरिण जिनचन्द्र का दिया हुमा लेख. पत्र लेकर भीमपल्ली राजेन्द्राचार्य के पाम गए, वहां से प्राचार्य साधु समुदाय के साथ पाटन पहुंचे, उस प्रदेश में दुर्भिक्ष घल रहा था तो भी श्रीपूज्य के आदेश का पालन करने के निमित्त राजेन्द्रा ने सं० १३७७ के ज्येष्ठ वदि ११ को कुम्भलमेर में मूलपद स्थापना का निश्चित किया। बाद में सा० तेजपाल श्रावक ने मूलपद स्थापना का महोत्सव करने का भार स्वीकार कर विधिमार्ग श्रावकों वाले सर्व गांव नगरों में कुकुमपत्रिकायें भेजी, सर्व स्थानों के विधिसमुदाय नियत दिन पर पाटन आ पहुंचे, ठक्कुर विजयसिंह भी श्रीपूज्यदत्त चिट्ठी का गोलक लेकर दिल्ली से पाटन पाया, श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य, विवेकसमुद्र महोपाध्याय, प्रवर्तक जयवल्लभ गणि, हेमसेन गणि, वाचनाचार्य हेमभूषण गणि प्रमुख साधु ३३ और जद्धि महत्तरा, प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि, प्रियदर्शना प्रमुख २३ साध्वियां सर्वस्थानीय श्रावकसमुदाय के सामने जयवत्लभ गणि के हस्तक का खेल और ठा० विजयसिंह वाला चिट्ठी का गोलक राजेन्द्रचन्द्राचार्य को दिया, पत्र तथा चिट्ठी सभा में पढ़ी गई, सुनकर चतुर्विध विधि-संघ आनन्दित हुआ और ४० वर्ष की उम्र वाले वाचनाचार्य कुगलकीर्ति को शान्तिनाथ देव के सामने प्राचार्य-पद प्रदान किया गया और "जिनकुशलसूरि" यह नाम रक्खा । (१२) जिनकुशलसूरि -- ___ उसके बाद श्री जिनकुशलसूरिजी भीमपल्ली गए, और प्रथम चातुमस्यि वहीं किया, सं० १३७८ के माघ शुक्ल ३ को भीमपल्ली में नन्दीमहोत्सव हुआ । श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य ने माला ग्रहण को और देवप्रभ मुनि को दीक्षा दी, तथा वाचनाचार्य हेमभषरण गरिण को अभिषेक पद ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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