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[ पट्टावली-पराग
सं० १३७३ के मार्गशीर्ष वदि ४ को प्राचार्य ने पद-स्थापनादि उत्सव शुरु करवाने और चौमासे में भी देवराजपुर से विशल, महरणसिंह श्रावकों को पाटन भेजकर अपने शिष्य रामचन्द्र को बुलाया, उपाध्यायजी ने भी गुरु की आज्ञा के अनुसार पुण्यकीर्ति गरिए को साथ में देकर रामचन्द्र मुनि को उनको साथ भेज दिया, कार्तिक मास की चतुर्मासी के दिन रामचन्द्र मुनि श्री जिनचन्द्रसूरिजी के पास पहुँचे और अनेक नगरों के संघ- समवायों के समक्ष आचार्य ने अपने शिष्य रामचन्द्र को आचार्य पद देकर राजेन्द्रचन्द्राचार्य बनाया, उसी उत्सव में ललितप्रभ, नरेन्द्रप्रभ, धर्मप्रभ, पुण्यप्रभ, अमरप्रभ साधुनों की दीक्षा दी ।
सं० १३७४ फाल्गुन वदि ६ के दिन उच्चापुरीय प्रादि अनेक सिन्धदेश के समुदायों ने नन्दिमहोत्सव किया, जिसमें दर्शनहित, भुवनहित, त्रिभुवनहित, मुनियों को दीक्षा प्रदान की, १०० श्राविकाओं ने माला ग्रहण की, इस प्रकार देवराजपुर में दो चातुर्मास्य रहकर श्रीपूज्य ने नागौर की तरफ बिहार किया, वहां से पूज्य ने कन्यानयन के निवासी सा० काला सुश्रावक की सहायता से श्रीपूज्य ने फलोदी पार्श्वनाथ की दूसरी बार यात्रा की ।
सं० १३७५ के माघ शुल्क १२ को नागपुर में महोत्सव कराया और उसमें सोमचन्द्र साधु को तथा शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि साध्वियों को दीक्षा दी, और पं० जगच्चन्द्र गरिण तथा राजकुशल गरिए को वाचनाचार्य पद दिया, धर्ममाला गरिणनी, पुण्यसुन्दरी गरिणनी को प्रवर्तनीपद दिया, बाद में अनेक श्रावक समुदाय के साथ फलौदी जाकर श्री पार्श्वनाथ की तीसरी बार यात्रा की, श्री पार्श्वनाथ के भाण्डागार में ३० हजार जैथल उत्पन्न हुए, फिर श्रीपूज्य संघ के साथ नागोर गए ।
सं० १३७५ के वैशाख वदि ८ को ठक्कर अचल सुश्रावक ने श्री कुतुबुद्दीन सुरत्राण से आज्ञा निकलवा कर कुंकुमपत्रिकादानपूर्वक अनेक नगरों के समुदायों को एकत्र कर हस्तिनापुर, मथुरा महातीर्थों की यात्रा के लिए संघ निकलवाया, श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि, जयवल्लभ गरिए, पद्मकीर्ति
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