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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२९ भीमपल्ली के समुदाय द्वारा किये गये उत्सव में प्रतापकीर्ति आदि २ क्षुल्लकों की उपस्थापनाएं हुई और दो क्षुल्लक नये किये जिनके नाम - तरुणकीति और तेजकीर्ति हैं, दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी और नाम व्रतधर्मा, दृढ़धर्मा दिये। __उसी दिन रत्नमंजरी गणिनी को महत्तरा-पद देकर "जद्धिमहत्तरा" यह नाम रक्खा और प्रियदर्शना गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया। वहां से श्रीपूज्य पाटन नगर पाए। सं० १३६९ के मार्ग वदि ६ को श्रीपूज्य ने चन्दनमूर्ति, भुवनमूर्ति, सारमूर्ति, हीरमूर्ति नामक चार क्षुल्लक बनाए और केवलप्रभा गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया। सं० १३७० के माघ शुक्ल ११ श्रीपूज्य ने निधानमुनि कोथात यशोनिधि, महानिधि को पाटन में दीक्षा दो। वहां से भीमपल्ली गए। सं० १३७१ में फाल्गुन शुक्ल ११ को त्रिभुवन कीर्तिमुनि तथा प्रियधर्मा, आशालक्ष्मी धर्मलक्ष्मी नामक साध्वियों को भीमपल्ली में दीक्षा दी। बाद में श्रीपूज्यपाद जालोर विचरे, वहां पर संवत् १३७१ के ज्येष्ठ वदि १० को श्रीपूज्य ने देवेन्द्रदत्त, पुण्यदत्त, ज्ञानदत्त, चार दत्त मुनियों को तथा पुण्यलक्ष्मी ज्ञ नलक्ष्मी, कमललक्ष्मी और मति लक्ष्मी को दीक्षित किया, बाद में जालोर का भंग म्लेच्छों द्वारा (मुसलमानों से) हुमा, बाद में प्राचार्य सिवाना, रीणी, बब्बेरक आदि स्थानों में होते हुए फलोदी पार्श्वनाथ की यात्रा को गए । वहां से नागोर की तरफ विहार किया, वहां से उच्चापुरीय विधि-ममुदाय की प्रार्थना से श्री जिनचन्द्रसूरिजा ने सिन्ध की तरफ विहार किया और उच्चापुरीय के निकटवर्ती देवराजपुर में कुछ समय तक ठहरे। सिद्धान्त के अनुसार यह घटित नहीं होती। जैन-सिद्धान्त ने पुण्य अथवा पाप की प्रवृत्ति करने वालों को स्वयं उनका भोक्ता बताया है। पुण्य के फल की तरह कोई पाप करने बाले का पाप फल अपने ऊपर ले ले और करने वाला अपना दुष्कृत दे दे तो क्या पापकर्ता पाप से मुक्त हो सकेगा ? कभी नहीं । इसी प्रकार पुण्य के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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