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[ पट्टावली-पराग
वीजापुर में सं० १३६७ के माघ वदि ६ को महावीर प्रमुख बिम्बों की श्रीपूज्य ने ठाट पूर्वक प्रतिष्ठा की, वहां से भीमपल्ली के समुदाय की प्रार्थना से भीमपल्ली पधारे और वहां फाल्गुन शुक्ल १ को तीन क्षुल्लक और २ क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी, उनके नाम परमकोति, वरकीर्ति, रामकोति, पद्मश्री तथा व्रतश्री थे। उसी दिन पं० सोमसुन्दर गरिण को वाचनाचार्य पद दिया गया।
प्रस्तुत वर्ष में हो कुंकुमपत्रिकाएं भेज कर श्री पाटन, पालनपुर, जालोर, सिवाना, जयसलमेर, राणुकोट, नागौर, रिणी, वीजापुर, सांचौर, भीनमाल, रत्नपुरादि अनेक स्थानों के वास्तव्य-श्रावक-समुदाय के साथ सा० सामल ने तीर्थ-यात्रा का प्रारम्भ किया। सामल तथा संघ समुदाय की प्रार्थना से चैत्र शुक्ल १३ के दिन चतुर्विध संघ मौर देवालय के साथ पूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने भीमपल्ली से प्रयाण किया और श्री शंखेश्वर में जाकर पार्श्वनाथ की यात्रा की, संघ ने आठ दिन तक वहां ठहर कर उत्सव किया, वहां से पाटडी में नेमिनाथ को वन्दन किया और राजशेखराचार्य, जयवल्लभ गणि आदि १६ साधु और प्र० बुद्धिसमृद्धि गणिनी आदि १५ साध्वियों के साथ विधिसंघ ने क्रमशः शत्रुञ्जय पहुँच कर आदिनाथ की यात्रा की। वहां से गिरनार जाकर श्री नेमिनाथ को वन्दन किया, दोनों तीर्थो पर इन्द्रपदादि के चढ़ावों द्वारा प्रचुर द्रव्य खर्च किया सर्व तीर्थो की यात्रा करके सा० सामल के संघ के साथ पूज्य जिनचन्द्रसूरि प्राषाढ़ चातुर्मास्य के दिन वायड गांव पाए और महावीर की यात्रा कर श्रावण वदि में विधि-समुदाय के साथ जिनचन्द्रसूरि ने भीमपल्ली में प्रवेश किया।
संव के साथ पाए हुए भरणशाली लूणा श्रावक ने पूज्यपाद आचार्य के समक्ष अपनी तरफ से संघ के पाश्चात्य-पद की व्यवस्था का भार निभा कर जो पुण्य उपाजित किया था, वह सब अपनी माता भा० धनी सुश्राविका को दिया? और धनी ने श्रद्धापूर्वक उसका अनुमोदन किया। १. भणशाली लूणा श्रावक द्वारा संघ के पाश्चात्य भार वहन करने से उत्पन्न पुण्य को
अपनी मां को गुरु की साक्षी से अर्पण करने की बात कही गई है, परन्तु जैन
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