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________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २९७ परन्तु उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि जिनदत्तसूरिजी ने अपने पट्टधरों की परम्परा के प्राचार्य को योगिनीपुर में न जाने का प्रादेश दिया था। राजा के उपरोध से जिनचन्द्रसूरि योगिनीपुर में जाने के लिए तैयार हुए और ठाट के साथ नगरप्रवेश किया। एक समय वहां रहने वाले अपने भक्त कुलचन्द्र श्रावक को पूज्य ने अतिगरीब देखकर उसे एक यन्त्रपट दिया और कहा - कुलचन्द्र ! अपनी मुट्ठीभर वास से पट को प्रतिदिन पूजना, इस पट पर चढाये हुए, निर्माल्य रूप वास पारद आदि के संयोग से सुवर्ण बन जायेंगे१, गुरु की बताई हुई रोति से पट्ट को पूजता हुआ कुलचन्द्र कोटिध्वज हो गया। १. वास को सोना बनाकर कुलचन्द्र श्रावक को करोडपति बनाने वाला गुर्वावलीलेखक किसी नई दुनियां का मनुष्य प्रतीत होता है। खनिज-पदार्थों के सम्पर्क से पारद का सोना बनाने का तो भारतीय रसायन और तन्त्र-शास्त्रों में लिखा है, परन्तु केसर, कस्तूरी चन्दन आदि सुगन्ध काष्टिक पदार्थों से सोना बनाने का गुर्वावलीकार को छोड़ कर अन्य किसी ने नहीं लिखा । लेखक को इस प्रकार के कल्पित किस्से लिखने के पहले सोचना था कि इन बातों को सत्य मानने वाले परिमित भोले भक्त मिलेंगे, तब इन बातों को पढ़कर लेखक की खिल्ली उडाने वाले बहत मिलेंगे। परिणामस्वरूप इस जरिये से हमारे गुरु का महत्त्व बढ़ाने के बदले घट जायगा। उक्त हकीकत वाले फिकरे के नीचे एक प्रक्षिप्त पाठ पंक्ति का पाठ है, उसमें एक देवता को देव बनाने की कहानी लिखी है, वह कहानी इस प्रकार है - "एक दिन जिनचन्द्रसूरि दिल्ली के उत्तर दरवाजे से होकर स्थण्डिल भूमि की तरफ जा रहे थे। महानवमी का दिन था, श्री पूज्य ने मांस के निमित्त आपस में लड़ती हुई दो देवताओं को देखा। बड़े जोरों का युद्ध हो रहा था, उसे देख कर श्री पूज्य ने दया लाकर "अधिगालि'' नामक देवता को प्रतिबोध दिया। शान्तचित्त होकर उसने प्राचार्य को कहा - भगवन् ! मैंने मांस-बलि का त्याग कर दिया, परन्तु आप मुझे कोई स्थानक वनाएं, जहां रहकर आपकी आज्ञा का पालन करती रहूं। प्राचार्य ने उसे कहा - महानुभाव ! श्रीपार्श्वनाथविधिचत्य में प्रवेश करते दाहिनी तरफ जो स्तम्भ है, उसमें तू अपना स्थान बना ले। श्री पूज्य बहिर्भूमि से पौषधशाला में पाये और सा० लोहड, सा० कुलचन्द्र, सा० पाल्हण आदि प्रधान श्रावकों को कहा - श्री पार्श्वनाथ प्रासाद में प्रवेश करते दाहिनी तरफ के स्तम्भ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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